लेकर कुछ
छुई-अनछुई
देखी-अनदेखी और
नई-जूनी
पाँच रचनाओं की कड़ियाँ...
कविताएँ में..ओंकार केडिया
मैं चट्टान हूँ,
मुझे ठोकर मारोगे
तो चोट ही खाओगे,
नहीं होगा मेरा
कोई बाल भी बांका,
मैं टिका रहूँगा
अनीह ईषना में...स्वाति वल्लभा राज
यक़ीनन हर रोज
अंदर कुछ मरता है मेरे,
जब भी तुझे
जगाने की बात करती हूँ ।
दोज़ख में दफन होती हैं
ये रही आज की प्रथम व शीर्षक कड़ी
बस यूँ ही में....पूनम सिंह
चलती है साँस यूँ तो मगर जिंदगी भी हो...
रहती है साथ भीड़ मगर आदमी भी हो...!
फीकी पड़ी हुई हैं जमाने की रौनकें...
कुछ देर यार जिंदगी में मुफलिसी भी हो...!
देवी जी का पूरा ध्यान
कल आने वाली
दो सौवीं
प्रस्तुति पर ही लगा है
उन्हें भाई कुलदीप पर पूरा भरोसा है
आज्ञा दें दिग्विजय को
फिर मिलेंगे
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना की प्रस्तुति
सर जी
मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंबाकि लिंक्स भी बेहतरीन ।
उम्दा हलचल ।
धन्यवाद ।
बहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंआने वाली दो सौवें अंक के लिये शुभकामनाऐं । सुन्दर प्रस्तुति ।
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