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सोमवार, 21 दिसंबर 2015

156..........आखिर चाहते क्या हो?

सादर अभिवादन स्वीकारें
आज मन नहीं था
कुछ भी लिखने पढ़ने का पर..
कर्म-काण्ड में फंसी यशोदा
करे  भी  तो क्या करे..मन व्यथित है..


अपने न्यायालय का नियम भी 
विचित्र है कहता है 
कि दस दोषी भले ही छूट जाए पर.. 
एक निर्दोष को 
सजा नही होनी चाहिए
और आज एक दोषी और रिहा होगा

.....ये तो पुरातन काल से होता चला आ रहा है

चलिए चलें वर्तमान में.....

देहभान में प्राण तिरोहित,
अन्तर आत्मा दुखी बेचारी ।
प्रेम भक्ति की सुधा चखा दो,
राधा माधव, कृष्ण मुरारी ।।


तुमने मुझसे 
वो हर छोटी-छोटी बात 
वो हर चाहत कही 
जो तुम चाहती थी 
कि तुम करो 
कि तुम जी सको 
पर शायद तुमको 
कहीं ना कहीं पता था 


एक बच्ची का बचना
एक बच्ची का मरना
एक बच्ची का गिरना
एक बच्ची का बिगड़ना
आखिर चाहते क्या हो?


बेचैन आत्मा में..
पढ़ लिख कर 
होशियार हो गई थी मेरी बेटी 
नौकरी करने गई थी 
देश की राजधानी में 
पापियों ने 
बलात्कार कर दिया 
मार दिया जान से 
तुम कहते हो 
नहीं होगी सजा 
नाबालिग थे हत्यारे! 
बलात्कार करने वाला बालिग ही हुआ न ? 


रिदम में..
मुझे सुनाई देती हैंआवाज़े
पहाड़ के उस पार की
घाटी में गूंजती सी
मखमली ऊन से हवा
फंदा-दर फंदा
साँस देती हुयी
आवाहन करती हैं
जीने की जदोजहद से निकलने का


कविता रावत में
मैदान  का नजारा देखने के लिए पहाड़ पर चढ़ना पड़ता है।
परिश्रम में कोई कमी न हो तो कुछ भी कठिन नहीं होता है।।

एक जगह मछली न मिले तो दूसरी जगह ढूँढ़ना पड़ता है।
उद्यम   से   सब   कुछ   प्राप्त   किया   जा   सकता  है।।

और ये रही आज की अंतिम कड़ी

उन्नयन में
तुम बदल न पाये खुद को 
औरों को बार बार कहते हो -
फूटी कौड़ी भी  न दे सके 
जरूरतमंदों को  जनाब 

आज्ञा दें यशोदा को
फिर मिलेंगे..













4 टिप्‍पणियां:

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