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गुरुवार, 26 नवंबर 2015

131......पर हर कोई मौन है...

जय मांहाटेशवरी...

हमारे देश में कुछ चीजे गैरकानूनी है...
फिर भी जीवित है।...
जिस का पता...
हर सामाजिक संगठन, हर अधिकारी तथा हर नेता को है...
पर हर कोई मौन है...
जैसे कुछ जानते  ही नहीं...
 इन सब में सबसे बड़ा अपराध वेश्यावृति...
 जो हमारे समाज में गैरकानूनी है....
 परन्तु आज भी कई स्थान प्रसिद्ध हैं, जहा ये गंदा व्यापार बड़े स्तर पर होता है...
आज की प्रस्तुति...पेश है...
इसी विषय को उजागर करते पांच लिंक...

इस कविता के साथ...
जिस्म की कब्र में
रोज नया मुर्दा दफनाते हुए
बेजान हो गया है तन
सड़क सी जिंदगी
रोंदते है जिसे
अनगिनत वाहन
धुआं छोड़ते हुए
और थूककर
गन्दा बनाते लोग
कुचलते हैं आत्मा को
जिसे आती है
ख़ुद पर घिन्न
फ़िर भी पीने के लिए
समाज का जहर
नीलकंठ की तरह
तैयार हैं
तंग गली के
मटमैले परदों के पीछे
जितेन्द्र सोनी

देशभर में करीब 1100 बदनाम बस्तियां हैं।
जिन्हें रेड लाईट एरिया कहा जाता है।इन बदनाम बस्तियों में 54 लाख बच्चे रहते हैं। इन 54 लाख बच्चों में कोई 60 फीसदी लड़कियां हैं।बदनाम बस्तियों की ये बेटियां होनहार तो हैं लेकिन लाचार हैं।वे पढ़ना तो चाहती हैं और मुख्यधारा का जीवन भी जीना चाहती हैं। लेकिन परिस्थियां उनके लिए सबसे बड़ी बेड़ी नजर आती है।यहां पैदा होने वाली बेटियों की मां भी अपनी बेटियों को सम्मान की जिंदगी देना चाहती हैं लेकिन एक सीमा के बाद उनके हाथ भी बंधे नजर आते हैं।इन इलाकों में वेश्यावृत्ति में शामिल महिलाएं न केवल अपने बच्चों को पालना चाहती हैं बल्कि उनको एक बेहतर भविष्य देना चाहती हैं।अपवाद स्वरूप ऐसे उदाहरण भी नजर आते हैं जब बदनाम बस्तियों की बेटियों ने नाम कमाया है।लेकिन यह महज अपवाद ही है।
 मंटो साहब लिखते हैं “वेश्या का मकान खुद एक ज़नाज़ा है जो समाज अपने कंधों पर उठाये हुए है। वह उसे जब तक दफ़न नहीं करेगा उससे मुताल्लिक बातें होती रहेंगी।  भ्रूण हत्या का दंश झेल रहे हमारे समाज में कम से कम एक जगह ऐसी भी है जहां बेटी पैदा होने पर खुशियां मनाई जाती है और बेटा पैदा होने पर मुंह सिकुड़ जाता है।ये बदनाम गलियों की दास्तां है। दिल्ली के जी बी रोड की अंधेरी गलियों को ही लें,जहां कि जर्जर खिड़कियों में पीली रोशनी से इशारा करती लड़कियों के विषय में जानने की फुर्सत शायद ही आज किसी के पास हो।गाड़ियों का शोर,भीड़भाड़ भरा इलाका और भारी व्यावसायिक गतिविधियों में इस बाजार  के व्यापारियों के लिए यह कुछ भी नया नहीं है।आलम ये है कि इस इलाके के दुकानदार शर्म-ओ-हया से अपना पता बताने में भी गुरेज करते हैं।खुद को शरीफ कहने वाले लोग यहां मुंह ऊपर उठाकर भी नहीं देखते और महिलाएं तो शायद ही ऐसा करती हों। अंतत: सवाल ये है कि आखीर कब रुकेगा ये सिलसिला...क्या यूं ही बदनाम होती रहेंगी ये बेबस जिंदगियां...कब होगी एक ऐसी पहल जिसका सार्थक परिणाम हमारे सामने आयेगा...और कोठों की ये बदनाम तबायफ सम्मान से हमारे समाज में सिर ऊंचा कर जी सकेंगी...या यूं ही गुमनामी के अंधेरे में कहीं खो जाएंगी...कब मिलेगा उन्हें उनका हक...आखिर कब इनके दामन से छूटेगी गरीबी की कालिख....आखिर कब लगेगी इसपर बंदिश......अगर वेश्या का ज़िक्र हमारे समाज में निषिद्ध है तो उसका पेशा भी निषिद्ध होना चाहिए... यकिन मानिए वेश्यावृत्ती को मिटाइए उसका ज़िक्र खुद ब खुद मिट जायेगा...।।।

 ‘तुम्हारी कविताएं मुझे पसंद आईं, क्योंकि तुमने मर्द और ईश्वर को उसकी औकात बताने की कोशिश की। और जिस दिन मैं तुम्हें ये बताने का साहस इकट्ठा कर रही थी कि मैं स्वार्थी हो गई हूं, ठीक उसी दिन मुझे बताया गया कि मुझे एड्स है। मैं एक गुनाह से बच गई और तुम एक अग्निपरीक्षा से। तुम्हारी कविताएं वेश्याओं की जिस मुक्ति की बात करती हैं, यह उसी के सन्दर्भ में होता। हालांकि मुझे विश्वास था कि तुम मेरी आस्था की लाज रख लेते, लेकिन मैं ज़ोखिमों के लिए भी तैयार थी। खैर.... जो भी हो, एक विश्वास लेकर मरना, एक अविश्वासी मौत से कहीं बेहतर है।’ और अन्त में परिच्छेद बदलते हुए उसने संक्षेप में लिखा।
‘मैं बड़ी उम्मीदों के साथ तुम्हें एक पता दे रही हूं। इस पते पर मेरी छोटी बहन रहती है, उम्मीद करती हूं कि उसे भी तुम्हारी कविताएं बहुत पसंद आएंगी। और न केवल पसंद आएंगी बल्कि इस समय उसे तुम्हारी कविताओं की सख्त ज़रूरत भी है।’ -तुम्हारी शबो।

..मैं मानती हूं समय के साथ-साथ हमारी सोच में भी काफी बदलाव आया है..
लेकिन आज भी ज्यादातर जगह स्त्री को सिर्फ भोग और वंश बेल को आगे बढ़ाने वाली चीज ही समझा
जाता है( ध्यान दीजिए , मैंने यहां औरत के लिए इंसान की जगह चीज शब्द का इस्तेमाल किया है)
स्त्री को उसकी सीमित बातचीत, सीमित राह, सीमित खान- पान, सीमित इच्छाओं और सीमित सपनों के बारे में पूरा ज्ञान दिया जाता है, ताकि गलती से भी उसे उस सीमा को लांघने की गलती ना हो..

दरवाजे पर ठकठक हुई। बाहर से किसी स्त्री ने पुकारा था - ओये! फारिग हो गई के? एक मोटा असामी आया है।
वेश्या ने दरवाजा खोला और फुफकारते हुये बोली - यह मेरी इबादत का वक़्त है। जबरी की तो ....
'गाहक तो अन्दर बैठ्ठा है!'
'गाहक नहीं, वह मेरा बापवाला है...अपने भँड़ुओं से कह दो आज का टैम खत्तम, कल आयें।'
कुटनी हैरान सी चली गई।   

जिन भिक्षुओं को ईषा थी, वह झांक-झांक कर देखते। और भगवान को आकर शिकायत करते की देखा आपने, विचित्र सेन को, वह नाच गाने सुनता है। सुस्‍वाद भोजन करता है, कभी वो वेश्‍या उसकी गोद में लेटी हमने देखी। वह अपने हाथों से उसे तेल लगती है,नहलाती है। और कभी-कभी तो हमने उन्‍हें एक ही बिस्तरे पर संग साथ सोते भी देखा है। भगवान आप ने भी कमाल कर दिया। उस बेचारे का सारा जीवन बर्बाद हो गया। सारी तपस्‍या मिट्टी में मिल गई। भगवान केवल हंस भर देते।
      चार माह बाद वह भिक्षु विचित्र सेन आया। वेश्‍या भी उसके साथ चली आ रही थी। उसने भगवान के चरणों में सर रख कर कहां आपके भिक्षु को क्‍या मिल गया। मैं नहीं जानती बस मैने चार माह उसका संग किया है। आपका भिक्षु हर क्रियाकलाप से सतत अप्रभावित रहा। किसी भी चीज का उसने कभी विरोध नहीं किया। जो खाने को देती खा लेता। जो मैं कर सकती थी एक पुरूष को रिझाने के लिए वो सब उपाय मैंने किये। नाच, गाना, साथ सोना, छूना पर वह सदा अप्रभावित रहा। मैं हार गई भगवान ऐसा पुरूष मैंने जीवन में नहीं देखा। हजारों पुरूषों का संग किया है। पुरूष की हर गति विधि से में परिचित हूं। पर आपके भिक्षु ने जरूर कुछ ऐसा रस जाना है। जो इस भोग के रस से कहीं उत्‍तम है। मुझ अभागी को भी मार्ग दो। मैं भी वहीं रस चाहती हूं। जो क्षण में न छिन जाये शाश्वत रहे। मैं भी पूर्ण होना चाहती हूँ। सच ही आपका भिक्षु पूर्ण पुरूष है। और उसने दीक्षा ले ली। विचित्र सेन ने भगवान के चरणों में अपना सर रखा। भगवान ने उसे उठा कर अपने गले से लगया। मेरा बेटा विचित्र सेन सच में ही विचित्र हो गया। अर्हत हो गया है। और वेश्‍या के साथ पूरे भिक्षु संध की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे।
      भगवान न उस भिक्षु को देख कर कहा, देखा भिक्षु तुमने, मेरा बेटा वेश्‍या के यहां चार मास रहा तो एक और भिक्षु को अपने साथ लाया। तू भी सिख अपने अंदर झांककर देख, उस मन की चालबाजी को जो तुझे छल रहा है। वह जो कह रहा है..क्‍या वह सत्‍य है या मात्र एक छलावा। आंखें खोल जाग, देख चारों और कितना प्रकाश फैल रहा है।
और ये अपने ही दिल पर हाथ रख कर खुद ही उत्‍तर ढुंड़ कि क्‍या तु अगर जाता तो तेरी दबी वासना तुझे डुबो नहीं देती क्‍या तू  वापिस आता......शायद कभी नहीं, हां इस संध में एक भिक्षु और कम हो जाता संध में। और सब भिक्षु पल भर के लिए खिल खिला कर हंस दिये।
अब अंत में....

इसी विषय पर लीलाधर जगूड़ी  जी द्वारा रचित  एक और कविता...

कल-पुर्जों की तरह थकी टांगें, थके हाथ
उसके साथ
जब जीवित थी
लग्गियों की तरह लंबी टांगें
जूतों की तरह घिसे पैर
लटके होठों के आस-पास
टट्टुओं की तरह दिखती थी उदास
तलवों में कीलों की तरह ठुके सारे दुख
जैसे जोड़-जोड़ को टूटने से बचा रहे हों
उखड़े दाँतों के बिना ठुकी पोपली हँसी
ठक-ठकाया एक-एक तन्तु
जन्तु के सिर पर जैसे
बिन बाए झौव्वा भर बाल
दूसरे का काम बनाने के काम में
जितनी बार भी गिरी
खड़ी हो जा पड़ी किसी दूसरे के लिए
अपना आराम कभी नहीं किया अपने शरीर में
दाम भी जो आया कई हिस्सों में बँटा
बहुतों को वह दूर से
दुर्भाग्य की तरह मज़बूत दिखती थी
ख़ुशी कोई दूर-दूर तक नहीं थी
सौभाग्य की तरह
कोई कुछ कहे, सब कर दे
कोई कुछ दे-दे, बस ले-ले
चेहरे किसी के उसे याद न थे
दीवार पर सोती थी
बारिश में खड़े खच्चर की तरह
ऐसी थकी पगली औरत की भी कमाई
ठग-जवांई ले जाते थे
धूपबत्तियों से घिरे
चबूतरे वाले भगवान को देखकर
किसी मुर्दे की याद आती थी
सदी बदल रही थी
सड़क किनारे उसे लिटा दिया गया था
अकड़ी पड़ी थी
जैसे लेटे में भी खड़ी हो
उस पर कुछ रुपए फिंके हुए थे अंत में
कुछ जवान वेश्याओं ने चढाए थे
कुछ कोठा चढते-उतरते लोगों ने
एक बूढा कहीं से आकर
उसे अपनी बीवी की लाश बता रहा था
एक लावारिस की मौत से
दूसरा कुछ कमाना चाहता था
मेहनत की मौत की तरह
एक स्त्री मरी पड़ी थी
कल-पुर्जों की तरह
थकी टांगें, थके हाथ
उसके साथ अब भी दिखते थे
बीच ट्रैफ़िक
भावुकता का धंधा करने वाला
अथक पुरुष विलाप जीवित था
लगता है दो दिन लाश यहाँ से हटेगी नहीं।---


आज की प्रस्तुति तो यहीं तक...
जिसमें मैंने इन पीड़ित महिलाओं का दर्द बयान करने का प्रयास किया है...
अगर हम महिलाओं के उत्थान की बात करें...
हमे सब से पहले इन महिलाओं का...
पुनर्वास करना होगा...
धन्यवाद।

5 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात
    कई बार पुनर्वास हुआ
    मकान आदि दिए गए
    पर... परिणाम शून्य....
    कारण का पता चले तो
    निवारण हो सकता है
    ये विषय ही गूढ़ है...
    खुलकर कोई भी नहीं कह सकता
    कुलदीप भाई
    आप महिला विकास और
    पुनरुद्धार विभाग में कार्यरत हैं
    आपसे अधिक जानकारियां
    हमारे पास तो नहीं न है
    सादर

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    उत्तर
    1. मैं सोचता हूं...
      इस के कारण तो कयी हो सकते हैं...
      पर इन में से अधिकांश महिलाएं या तो मजबूर हैं...
      या गुमराह की गयी हैं...


      मौन रहकर कुछ न होगा...
      इस मामले पर सब को संवेदनशील होना पड़ेगा...
      लेखक, कवियों तथा पत्रकारों को इन विषयोंों पर लिखना होगा...
      अधिकारियों को अधिकारों का प्रयोग करना होगा...
      सामाजिक संगठनों को आवाज उठानी होगी...
      जब नेताओं को लगेगा कि वोट बैंक का एक बहुत बड़ा हिस्सा किसी मामले को गंभीरता से लेने लगा है तो वो भी कुछ न कुछ अवश्य सोचेंगे....

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  2. ​​​​​​सुन्दर हलचल ..........बधाई |
    ​​​​​​​​​​​​​​आप सभी का स्वागत है मेरे इस #ब्लॉग #हिन्दी #कविता #मंच के नये #पोस्ट #​असहिष्णुता पर | ब्लॉग पर आये और अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें |

    ​http://hindikavita​​manch.bl​​ogspot.in/2015/11/intolerance-vs-tolerance.html​​

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  3. विचारशील हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं

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