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शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

सचमुच इतना ही सहज था सबकुछ ?....उन्हत्तरवां कदम

मेरी तमन्ना 
न थी 
तेरे बगैर रहने की .... 
लेकिन
मज़बूर को ,
मज़बूर की ,
मजबूरिया.. 
मज़बूर 
कर देती है ..!!!!
सादर अभिवादन..

चलते हैं आज की रचनाओं की ओर


नहीं,
नहीं था सरल मीरा का विषपान
उनकी हँसी
साधुओं की मंडली में उनका सुधबुध खोना
मूर्ति में समाहित हो जाना  …
कथन की सहजता
जीने की विवशता में
बहुत विरोधाभास होता है


स्थापित ' मैं ' की परितृप्त परिभाषाएँ
केवल पन्नों पर ही गरजती रहती है
बाहर अति व्यक्तित्व खड़े हो जाते हैं
और भीतर चिता सजती रहती है


क्या दिल-क्या आशिकी, 
क्या शहर-क्या आवारगी
रफ्ता रफ्ता दास्ताँ है, 
......औ रफ्ता रफ्ता जिंदगी ?



हाँ !
तुम कहो ख़ूब
और सब सुने
दिल लगाकर
कुछ नया
कुछ चटपटा
फिर धीरे - धीरे
हम तक पँहुचे
उस की चटाक


कसक बची  उर बीच एक है 
पग घुघरू बाँध मैं  आऊँ कैसे
आ आ कर तेरे पास प्रिये मैं 
भर  बाँहों  में  इठलाऊँ  कैसे



जिसने माथे खींच दी, दुख की अनमिट रेख
क्यों न पहले लिखा वहीं, सहने का आलेख ।


कितनी अच्छी अच्छी बातें,हमें जानवर है सिखलाते 
उनके कितने ही मुहावरे , हम हैं रोज काम में लाते 

भैस चली जाती पानी में ,सांप छुछुंदर गति हो जाती 
और मार कर नौ सौ चूहे ,बिल्ली जी है हज को जाती 


मैं भी रंग गई पिया के रंग में
अतिक्रमण करके..

आखिर कब तक रोककर रखेंगे
पसंदीदा रचनाओं को
पढ़ना-पढ़ाना तो पड़ेगा ही न
विदा दें....यशोदा को














1 टिप्पणी:

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