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गुरुवार, 27 अगस्त 2015

तू जिसे आदमी बनाता है, वो उसे इन्सान बनाती है.....चालीसवां पन्ना

सादर अभिवादन स्वीकारें

" नहीं हो सकता
कद तेरा ऊँचा
किसी भी माँ से ...
ऐ खुदा......
तू जिसे
आदमी बनाता है,
वो उसे इन्सान
बनाती है"

ये रही मेरी आज की पसंदीदा रचनाएँ....


अनीह ईषना में
सूरत-ए -आम और सीरत-ए -मामूली निकले हम तो क्या
हँस के ज़रा कर दो बिदा,
सफ़ेद जोड़ों वाली आज हमारी बारात निकली है ।


मानसी में...
मां तुम प्रथम बनी गुरु मेरी
तुम बिन जीवन ही क्या होता
सूखा मरुथल, रात घनेरी


जिन्दगीनामा में.....
तुम्हारी दी हुई चीज़ जब
दरकती टूटती ..
अटकती बिगड़ती ..
फिसलती छिटकती है
तो ,पता नहीं क्यों..


स्वप्न मेरे में...
कहती है मोम यूँ ही पिघलना फ़िज़ूल है
महलों में इस चिराग का जलना फ़िज़ूल है

खुशबू नहीं तो रंग अदाएं ही ख़ास हों
कुछ भी नहीं तो फूल का खिलना फ़िज़ूल है


ज़ख्म…जो फूलों ने दिये में...
आजकल दर्द की गिरह में लिपटी हैं वर्जनाएं
कोशिशों के तमाम झुलसे हुए आकाश
अपने अपने दड़बों में कुकडू कूँ करने को हैं बाध्य
ये विडम्बनाओं का शहर है

इति....
सावन की विदाई हो रही हैं
जाते-जाते फिर से बरस गई..
क्या दिया इस बार सावन नें
नदी-नाले, ताल-तालाब सब
प्यासे ही रह गए इस सावन में

लोगों नें कहना छोड़ दिया.....
नदि-नारे न जाओ शाम पैंया पड़ूँ






3 टिप्‍पणियां:

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