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सोमवार, 30 सितंबर 2024

4263 ..ब्रेड-केक बिस्किट लगे सच्चा

 सादर नमस्कार


अलविदा सितंबर




सड़कों पर चलती नावें
दिन दिखते तारे हैं
कैसे अजब नज़ारे हैं

पनघट घर के भीतर आया
तैर रहे सब बासन
कारागार से इस जीवन पर
बादल करते शासन





पैदा होते ही मुझे मोक्ष मिल जाता
तो मैं पूरे जीवन से वंचित रह जाता





निरंतर, क्षितिज को निहारता,
उस शून्य को पुकारता,
चाहता फिर उसकी चंचलता,
संग उसके इक वास्ता.....




पूआ-गुझिया-खजूर न अच्छा।
ब्रेड-केक बिस्किट लगे सच्चा।
चाउमीन ने ऐसा किया कमाल।
भूले भुजिया-सब्जी रोटी- दाल।





बुल्लेशाह  की तू कहे  काफ़ियाँ,
गाये  वारिस  की  हीर  जोगी |
दिल  का  ही  था  किस्सा  कोई
जो राँझा  बना   फ़कीर  जोगी |
इश्क़ के  रस्ते  खुदा  तक  पँहुचे,
क्या तूने  वो  पथ  अपनाया  जोगी ?
ये कोई  दर्द  था  दुनिया  का ,
या दुःख   अपना गाया  जोगी !!


बस

रविवार, 29 सितंबर 2024

4262 ..उस को ख़ुद-दारी का क्या पाठ पढ़ाया जाए

 सादर नमस्कार




कुतिया की दुम सीधी होगी,
बीड़ा मैंने उठा लिया।
रोआं रोआं नोच लिया है,
बन्धन ढीला नहीं हुआ।
अर्द्धशतक तो बिता दिया है,




 कभी प्लावित थी,
सलिला इस पथ पर!
कर गई परित्यक्ता,
परती को,
प्रविष्ट हो पाताल में।
सूख कर सुर्ख-सी
भुर-भुराकर बुरादों में
मृतप्राय मृदिका!
बन गई बालुकूट।





इतनी सी बात हिन्दुत्व की बागडोर थामे ना तो नेतृत्व समझता और ना ही हम जो बंटने पर हार हाल में आमादा हैं जैसे क‍ि -

कुम्हार, सुथार, विश्वकर्मा, नाई, लुहार, चर्मकार, पंड‍ित, बन‍िया और ठाकुर...फेहर‍िस्त बड़ी लंबी है  ....कहां तक ल‍िखूं ...आज मन इस बंटाव को देखकर दुखी है क‍ि हम कहां थे और कहां आ गए...नौकरी की भीख मांगत मांगते ।

हसीब सोज़ का एक शेर देख‍िए----

उस को ख़ुद-दारी का क्या पाठ पढ़ाया जाए
भीख को जिस ने पुरुस-कार समझ रक्खा है।




मुग्ध नहीं हैं तो सिर्फ़ वो
जो स्वीकार नहीं करते बंधन
अतः आज़ाद हैं
बंधनों से मुग्धता से
क्यूंकि वो जानते हैं
आत्म प्रदर्शन मुग्ध कर देता है।




बस अब एक अंतिम सांस का
छूटने का इंतजार है ।

ठीक वैसे ही
जब तुम छोड़ कर चले गए थे

****

चलते -चलते ...
सर्वस्व दान ...



एक पुराना मन्दिर था| दरारें पड़ी थीं| खूब जोर से वर्षा हुई और हवा चली| मन्दिर बहुत-सा भाग लड़खड़ा कर गिर पड़ा| उस दिन एक साधु वर्षा में उस मन्दिर में आकर ठहरे थे| भाग्य से वे जहाँ बैठे थे, उधर का कोना बच गया| साधु को चोट नहीं लगी|

साधु ने सबेरे पास के बाजार में चंदा करना प्रारम्भ किया| उन्होंने सोचा – ‘मेरे रहते भगवान् का मन्दिर गिरा है तो इसे बनवाकर तब मुझे कहीं जाना चाहिये|’

बाजार वालों में श्रद्धा थी| साधु विद्वान थे| उन्होंने घर-घर जाकर चंदा एकत्र किया| मन्दिर बन गया| भगवान् की मूर्ति की बड़े भारी उत्सव के साथ पूजा हुई| भण्डारा हुआ| सबने आनन्द से भगवान् का प्रसाद लिया|

भण्डारे के दिन शाम को सभा हुई| साधु बाबा दाताओं को धन्यवाद देने के लिये खड़े हुए| उनके हाथ में एक कागज था| उसमें लम्बी सूची थी| उन्होंने कहा – ‘सबसे बड़ा दान एक बुढ़िया माता ने दिया है| वे स्वयं आकर दे गयी थीं|’

लोगों ने सोचा कि अवश्य किसी बुढ़िया ने सौ-दो-सौ रुपये दिये होंगे| कई लोगों ने सौ रुपये दिये थे| लेकिन सबको बड़ा आश्चर्य हुआ|

जब बाबा ने कहा – ‘उन्होंने मुझे चार आने पैसे और थोड़ा-सा आटा दिया है|’ लोगों ने समझा कि साधु हँसी कर रहे हैं|

साधु ने आगे कहा – ‘वे लोगों के घर आटा पीसकर अपना काम चलाती हैं| ये पैसे कई महीने में वे एकत्र कर पायी थीं| यही उनकी सारी पूँजी थीं| मैं सर्वस्व दान करने वाली उन श्रद्धालु माता को प्रणाम करता हूँ|’

लोगों ने मस्तक झुका लिये| सचमुच बुढ़िया का मन से दिया हुआ यह सर्वस्व दान ही सबसे बड़ा था|

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बस

शनिवार, 28 सितंबर 2024

4261 ...कुछ दिन और जी लेना

 नमस्कार


देखिए कुछ रचनाएं



बारिश की बूंदें धरती में गिरने से पहले
यात्रा करती है कई मील दूर तक
उसकी इस यात्रा में बिछड़ते है
ऐसे साथी जो देते हैं वचन
धरती तक साथ निभाने का
लेकिन बिछड़ना तो तय है।




उग आते हैं पुष्प उद्यान, मन प्रांगण में
और गूंजने लगती है सरगम श्वासों में
सत्य की ही विजय होती है
असत्य तो पहले से ही पराजित है
चिर पराजित !'





पैकेज उपलब्ध है कैंसर स्केनिंग का 
प्रचार हो रहा है  
स्क्रीनिंग करवा लो, कहीं देर न हो जाय  
और यथाशीघ्र प्रारम्भ हो सके
तुम्हारी कीमोथेरेपी ...रेडियोथेरेपी  
बहुत मूल्यवान है जीवन
सोना बेच देना, खेत बेच देना, घर बेच देना
ख़रीद लेना कुछ और साँसें
कुछ दिन और जी लेना





जिसे चाहा जिसे वो खुशी ना मिली.
दुश्मनी तो मिली दोस्ती ना मिली..
 
यूँ अंधेरे मिला बेतहाशा हमें.
पर लिपट कर कभी रोशनी ना मिली..




ढल जाती है
रंगों की आभा
भावों में,
संवेदनाओं में,
अनुभूति में,
अभिव्यक्ति में ।
कलाकृति में ।

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आज बस
सादर वंदन

4260 .. तुम पुरुष स्त्री के अतीत में क्यों जीना चाहते हो

 सादर अभिवादन

आज बारी मेरी
और मेरे बारे में...
आठ महीने पहले डॉ. ने कहा कि मेरी बीमारी ने अपने आपको पुर्नस्थापित कर लिया है
और डेड लाईन दिया है कि  आठवें माह के बाद खतरा है, और उस आठ महीने में से चार माह बीत गए हैं,,
अभी फिलहाल में आयुर्वेदिक कॉलेज के अस्पताल में हूँ, सुकूं है..
आयुर्वेदिक कॉलेज पाईकमाल ओड़ीसा  के वैद्य हर 15 दिन में परीक्षण कर दवा देते हैं, एक खास बात नोट किया है मैंने आते ही पहले वे एक अगरबत्ती जलाते हैं और लंबी सांस लेने को कहते हैं
...होइहै वही जो राम रचि राखा बस

अब देखिए रचनाएँ



ये रिश्ते हैं
थोड़े नाज़ुक और पेचीदा
इनके पेच कसने में
ज़िंदगियाँ छूट जाएँगी
यही बेहतर है की हम,
शुरुआत करें फिर से
अजनबियों की तरह,
मुलाकात करें फिर से



एक व्यक्ति सदा कुछ न कुछ और बनने की कोशिश करता रहता है। वह स्वयं जैसा है उसे स्वीकार नहीं करता, इसी कारण वह दूसरे के अस्तित्व को भी नकारता है।उसका मन  सदा किसी आदर्श स्थिति को पाने की कल्पना करता है। इसलिए तनाव सदा इस बात के कारण होता है कि वास्तव में वह क्या है और क्या बनना चाहता है




लुप्त हुए त्योहार कुछ,बने धरोहर आज।
परम्परा के मूल में ,उन्नत रहे समाज।।

है ज्युतिया उपवास में,संतति का उत्कर्ष।
कठिन तपस्या मातु की,मिले पुत्र को हर्ष।।




ये तेरा प्यार मिसरी के जैसा रहा
घुल गया है मगर जायक़ा रह गया

वो नगर थे जो आगे निकलते गए
मैं रहा गांव जो ताकता रह गया



"हे पुरुरवा ! ... तुम पुरुष स्त्री के अतीत में क्यों जीना चाहते हो


आज बस
वंदन

शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

4259...रिश्तों को सहूलियत के अनुसार खर्च करता है...

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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हमारा पूर्ण अस्तित्व भावनाओं की गीली यादों से भरी एक गठरी ही तो है, जिसे हम हर वक़्त उठाए या लटकाए चलते रहते हैं।  सोते समय भी उसे तकिये की तरह इस्तेमाल करते हैं, जागते-सोते हर समय इन्हीं में उलझे रहते हैं।  इसी गठरी की गांठे खोल समय-समय पर अपने मीठे-कड़वे अनुभवों को भावुकता के पालने में बैठाकर अतीत और भविष्य के बीच झुलते हुए वर्तमान जीना ही भूल जाते हैं और स्वयं
को आहत करते हैं।
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आज की रचनाएँ-


मिलना,कभी-कभी मिलना
या कभी नहीं मिलना 
ये सब दिखते भले अलग-अलग हो 
मगर इनके पीछे का केंद्रीय भाव एक है
किसी से मिलना करना चाहिए
तब तक स्थगित
जब तक आप इसे समझने न लगे 
मात्र एक दैवीय संयोग


उलझी हुई “जिग्सॉ पजल” लगती है जिन्दगी 

जब इन्सान अपनी समझदारी के फेर में 


रिश्तों को सहूलियत अनुसार खर्च करता है ।



अब समन्दर भी तरसता
प्यास तृष्णा की लगाकर
चाँद को लहरें मचलती
स्वप्न को फिर से जगाकर
मन विचारों को पकड़ता
भाव को अवरोध कूटे ।।



बात नहीं है सिर्फ कहने की 
आईने में संवारो ,
खुद को निहारो,
छुपी हुई काबिलियत को निखारो,
सभी हदें पार करो खुश रहने की, 
ये बात नहीं है सिर्फ कहने की 
अपने आशिक़ बनो ,

बच्चों में अनुशासन में कमी

आजकल बच्चों में स्वेच्छाचारिता व् एकान्तप्रियता की भावना भी प्रबल रूप से घर करती जा रही है ! वे अपने पसंद के लोगों के अलावा अन्य किसीसे से बात करना मिलना जुलना बिलकुल पसंद नहीं करते ! कोई घर आ जाए तो कमरे से भी बाहर नहीं आते ! उन्हें मँहगे मँहगे वीडियो गेम्स और बाहर दोस्तों के साथ सैर सपाटा करने में ही आनंद आता है जो बिलकुल गलत है ! वे किसीसे आदरपूर्वक बात नहीं करते !


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आप सभी का आभार
आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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गुरुवार, 26 सितंबर 2024

4258...वक़्त का फ़लसफ़ा भी पढ़ना था पर अंगूठा छाप रह गए हम तो...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया डॉ.(सुश्री) शरद सिंह जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए पाँच पसंदीदा रचनाएँ-

माँ ...

बड़े बुजुर्गों ने कहा
अड़ोसी-पड़ोसियों ने कहा
आते-जाते ने कहा
माँ नहीं रही

पर मैं कैसे मान लूँ तू नहीं रही

*****

शायरी | फ़लसफ़ा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

*****

685. बोलो

तुम चुप रहोगे,

तो सबको लगेगा

कि तुम्हारे पास

कहने को कुछ नहीं है,

सब समझेंगे

कि दूसरे ही सही हैं,

जो बोल रहे हैं।

*****

मिलन धरा का आज गगन से

उड़ते पत्ते, पवन सुवासित

धरती को छू-छू के आये,

माटी की सुगंध लिए साथ

हर पादप शाखा सहलायें!

*****

1433 रश्मि विभा त्रिपाठी 

एक शब्द वो आग भड़का दे
जीवन छीन ले या फिर से

किसी का दिल धड़का दे

नीरव को कलरव में बदले,

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

 


बुधवार, 25 सितंबर 2024

4257 ..हो रही तलाश..

 ।।भोर वंदन।।
किसी पर सुब्ह़ आता है किसी पर शाम आता है
हमारे दिल को ले-दे कर यही इक काम आता है
वही अंजाम होता है हर इक आग़ाज़ का अपने
हमारा हर क़दम नाकामियों के काम आता है
सज़ाएं फिर मुक़र्रर हो रही हैं बे-गुनाहों की
ये देखें अबके सर पर कौन-सा इल्ज़ाम आता है
 राजेश रेड्डी
 चलते पढ़ते नज़र पड़ी और ठहरीं जिस पर ...लिख गई हाय रे राजनीति..✨️
केजरीवाल भी गोडसे के साथ है गांधी की फोटो हटवाया

निहायत घटिया और असंवैधानिक कृत्य! चाटुकारिता ने संविधान को अपने नीचे दबा दिया। यह खाली कुर्सी इस अरविंद केजरीवाल की है जिस पर उसकी आत्मा बैठी है। देह तो नहीं है क्योंकि बिना कुर्सी के उसकी आत्मा जीवित नहीं रह सकती। यह वही केजरीवाल है जिसने पंजाब की सरकार के इसी कक्ष में मुख्यमंत्री के गांधी जी की तस्वीर..
✨️
भोर का पक्षी

भोर का पक्षी / अनीता सैनी 
२१सितंबर२०२४
…..
 सदियों में कभी-कभार 
एक-आध ऐसी रात भी आती हैं,
जब उजाले की प्रतीक्षा में
भोर का यह पक्षी सारी रात गाता है
विरह-गीत।
✨️
मिलो तो सही इक बार वैसे
मुझ में अब कुछ ख़ास
न रहा, कई भागों
में बंटने के
बाद
शून्य के सिवा कुछ पास न
रहा, दस्तकों की उम्र
ढल चुकी, दरवाज़े
भी हैं निष्क्रिय
से मौन,
घरों..
✨️
तीन पग भूमि


बलि बलि जाइए ऐसे


भक्त और भगवान पर ! 

भक्त राजा बलि, दानी,

विनम्र एवं परोपकारी,

धर्मात्मा महत्वाकांक्षी,

✨️

अस्त हो चुके सूर्य को ढूँढ़ लाने की 

या चल रही कोई साज़िश 

रश्मियाँ बटोर नया सूर्य बनाने की,

झूठी ही सही, एक पहचान पाने की।
।।इति शम।।
धन्यवाद 
पम्मी सिंह ' तृप्ति '..✍️