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शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

4212... तुम सरल हो...

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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जाने ये कौन सा दौर है

नरमुंडों के ढेर पर बैठी

रक्त की पगडंडियों पर चलकर

उन्माद में डूबी भीड़

काँच के मर्तबानों में बंद

तड़पती रंगीन गूँगी मछलियों की 

की चीखों पर

कानों पर उंगली रखकर

तमाशबीन बनकर

ढोंग करती हैं

घड़ियाली संवेदना का

क्या सचमुच बुझ सकेगा

धधकता दावानल

कृत्रिम आँसुओं के छींटे से?

कोई क्यों नहीं समझता

रिमोट में बंद संवेदना से

नहीं मिट सकता

मन का अंर्तदाह...।

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आज की रचनाएँ-


तुम सरल हो,
सबको खुश रखना चाहते हो,
आज इसके लिए,
कल उसके लिए चलना चाहते हो 
तो चलो न
कौन रोकता है ?
पर ये जानकर, ये मानकर चलो
कि तुम्हारा अतीत हो,
वर्तमान हो या भविष्य !



शांत,निर्मल
बहती नदी सी
जिसकी कगार पर आकर
कहां ठहर पाते हैं
मान,अपमान,माया
तुम्हारी देह में समा जाना चाहते हैं
जीवन के सारे द्वन्द 

प्रेम का बीजमंत्र हो
साँझ की आरती हो
क्योंकि तुम
तुम ही हो




ज्योतिषी हर साल बताता है 

शादी का सही मौसम,

पर कभी नहीं बताता,

तलाक़ का सही मौसम. 




 वो नहीं जो तुमने किया
अपनी सुविधा के अनुसार
बल्कि प्रेम वो था 
जो तुम्हारे पास समय की 
कमी के कारण
तुम्हारे आफिस की फाइलों में बंद रहा 
और मैं दिन महीने साल दर साल प्रतीक्षारत रही



जिस तरह से भीड़ का अपराध या भीड़ में किसने कौन का अपराध किया ये तय कर पाना हमेशा ही दुरूह कार्य होता है ठीक ऐसा ही होता किसी भी दुर्घटना के लिए जिम्मेदार आरोपियों को और यदि ये सरकारी महकमा हुआ तो ये और भी अधिक कठिन बल्कि बेहद दुष्कर हो जाता है।  एक विभाग का नाम आते ही उसके सहयोगी अन्य किसी न किसी विभाग पर भी ऊँगली उठती है।  जितने विभाग उनके उतने कर्मचारी अधिकारी जो , सभी सम्बंधित हैं या फाइल कागजातों में सबके नाम आ जाते हैं ऐसे में फिर सब एक दूसरे क बचाने में लग जाते हैं।  

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आप सभी का आभार
आज के लिए इतना ही
मिलते हैं अगले अंक में ।
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5 टिप्‍पणियां:

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