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शनिवार, 6 जुलाई 2024

4178 ...मेधा पैसों से नहीं खरीदी जा सकती

 सादर अभिवादन

6 जुलाई , 2024

कह रहा है आसमां
यह समा कुछ भी नहीं।
रो रही हैं शबनमे,
नौरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।
जिनके महलों में
हजारों रंग के जलते थे फानूस।
झाड़ उनके कब्र पर,
बाकी निशां कुछ भी नहीं।

रचनाएँ कुछ मिली जुली ....



क्यों सोचता है इंसान ऐसा ?
जो न ग़म, ख़ुशी में समझे फर्क
और एग्जिट की ही सोचे हर वक़्त
क्यों उस किनारे की तलाश करे
जो समंदर के उस पार सी हो
दिखाई न दे क्षितिज हीन दिशाहीन !!





नासूर बनते इस घाव का उपचार बहुत सोच-समझ कर, बड़ी सूझ-बूझ और सतर्कता से तुरंत करना बेहद जरुरी है नहीं तो जाति, धर्म, आरक्षण के कारण बंटते देश-समाज की सिरदर्दी बढ़ाने के लिए एक और जमात सदा के लिए आ खड़ी होगी ! जिसके मुंह में मुफ्तखोरी का खून लग चुका होगा ! आज देश की हालत और समय का तकाजा है कि मुफ्त में मछली देने के बजाय मछली पकड़ना सिखाया जाए, ताकि अपने पैरों पर खड़ा हुआ जा सके ! आबादी के परमाणु बम पर बैठे देश को मुफ्तखोरों, परजीवियों की नहीं कर्म-वीरों की जरूरत है !


जीवन का यह कलश  रीतता


कितना रस्ता चल कर आया
फिर भी कहीं नहीं पहुँचा है,
जाने कब यह राज खुलेगा
मंज़िल पर ही सदा खड़ा है !

एक सुकून उतरता भीतर
मधुर परस जब उसका मिलता,
जिसका पता खोजते ही तो
जीवन का यह कलश रीतता !





"बिल्कुल नहीं मैं सारा समय अपने बच्चों को ही दूँँगी ताकि कल वह तुम्हारे बच्चे के जगह पर खड़ा हो और तुम्हारी जगह पर मैं।"  

मोहिनी की बात सुनकर राशि ने मन में सोचा - ओह तो ये पढ़े लिखे भी लोग इतनी गिरी सोच रखते है। मेधा पैसों से नहीं खरीदी जा सकती।




इस अवसर के उस अक्सर को
मोह दिया सब त्याग
मणि कर्णिका के घाटों का
अब पानी कौन उतारे

उतराता मैं इतराता
जानू ज्ञान गंगा के घाट
बसी अजोध्या जी जू में
राह बिसूरे राम के ठाठ
मुझसे मेरा ब्रम्ह भ्रमण
नयना क्यों दुखियारे





बाद में वह लड़का जब-तब मांस लाता और गांधीजी उसे खाते। उन्हें अब स्वाद आने लगा था।  पर बाद में उन्होंने मांस खाना छोड़ दिया। इसलिए नहीं कि वे इसे खराब मानते थे, बल्कि इसलिए कि इसके लिए उन्हें अपने धर्मपरायण  मां-बाप से झूठ बोलना पड़ता था। एक तो उनका वैष्णव परिवार था उसपर से गांधी जी पर जैन प्रभाव था। मांस खाना तो उनके लिए अत्यंत ही घृणित काम था। उन्हें यह महसूस हुआ कि मांस खाने से भी ज़्यादा बुरा वे माता-पिता से चुरा कर खाने का काम कर रहे हैं। उन्होंने मांस खाना छोड़ दिया। उनका मांसाहार हमेशा के लिए छूट गया। माता-पिता यह कभी नहीं जान पाए कि उनका बेटा मांसाहार कर चुका है।





मैं पहली पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूँ राजा के सिपाहियों से
पंक्ति काट देता हूँ

मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूँ बाग़ी गुरिल्लों से
पंक्ति काट देता हूँ
(यह रचना कविता कोश से ली है)


बाहर बारिश हो रही है
मात्र यह चित्र राहत देता है


******
आज बस
कल
सादर वंदन

3 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात !
    सुंदर भूमिका और सराहनीय सूत्रों से सजा अंक
    आभार !

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बढ़िया अंक है आज का। सभी रचनाकारों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  3. यशोदा जी, मान देने हेतु आपका तथा ''पांच लिंकों का आनंद'' का हार्दिक आभार

    जवाब देंहटाएं

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