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रविवार, 16 जून 2024

4158 ..वो पिता हैं, जिन्हें बच्चे तब समझते हैं

 सादर अभिवादन

वो पिता हैं, जिन्हें बच्चे तब समझते हैं
जब वे स्वयं अभिभावक बन जाते हैं
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पिता किसी बच्चे के जीवन में
सूरज की तरह होते हैं जो भोर की 
कोमल किरणों की तरह 
स्नेह से माथा चूमकर हाथ पकड़कर जीवन के कोलाहल से परिचित करवाते हैं। 
दोपहर की तीक्ष्ण धूप की तरह हर 
परिस्थिति में कर्मपथ पर 
तपकर कठोर बनकर जुझारू और संघर्षरत रहना सिखलाते हैं और शाम होते ही 
दिन-भर इकट्ठा किये गये सुख की शीतल छाँव में छोड़कर पथप्रदर्शक सितारा बन जाते हैं। 
समुंदर की तरह विशाल हृदय पिता जीवनभर सुख-दुःख की लहरों को बाँधते हैं लय में, 
रेत बनी अपनी आकांक्षाओं को छूकर बार-बार लौट जाते हैं अपनी सीमाओं में, 
अपने सीने की गहराइयों में ज़ज़्ब कर खारापन पोषते हैं अनमोल रत्न।

सागर-सा मुझको लगे, पिता आपका प्यार।
ऊपर बेशक खार सा, अंदर रतन हजार॥

 रचनाएँ कुछ सनातनी ....



देखों ये वाणी अब तक विद्यमान है तो इसलिए कि इसमें कठोरता नहीं और ये दांत पीछे आकर पहले समाप्त हो गए तो इसलिए कि ये बहुत कठोर हैं। इन्हें अपनी कठोरता पे अभिमान था। यह कठोरता ही इनकी समाप्ति का कारण बनी। इसलिए यदि देर तक जीना चाहते हो तो नर्म बनो, कठोर नहीं। संस्कृत के नीतिकारों ने तो कहा है कि ये हमारी जीभ रूपी गाय हमेशा ही दूसरे के मान की हरी भरी खेती करने को सदा लालायित रहती है, अतः इसे खूंटे से बांध कर रखो।

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ये भी नहीं
आज के दिन ही कुछ अच्छा सोच लेता
डर भी नहीं रहा कि

पिताजी पितृ दिवस के दिन ही नाराज हो जायेंगे।
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'लू' अर्थात गरमी के दिनों में चलने वाली तेज गरम या तपी हुई हवा की लपट। गरमी के दिनों में हम लू चलना, लू लगना, लू मारना आदि अभिव्यक्तियों  बहुत प्रयोग करते हैं । केवल एक अक्षर और एक मात्रा वाला 'लू' शब्द अनूठा भी है और रहस्यात्मक भी -- क्योंकि कोई नहीं जानता कि 'लू' शब्द कहाँ से आया

उपरोक्त रचनाएं
आज - कल की लिक्खी हुई है
अब पढ़िए फादर्स डे पर जूनी पर लाजवाब रचनाएं
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पिता एक उम्मीद है, एक आस है
परिवार की हिम्मत और विश्वास है,
बाहर से सख्त अंदर से नर्म है
उसके दिल में दफन कई मर्म हैं।
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जग सरवर स्नेह की बूँदें
भर अंजुरी कैसे पी पाती
बिन " पापा " पीयूष घट  आप
सरित लहर में खोती जाती
प्लावित तट पर बिना पात्र के
मैं प्यासी रह जाती!


मन-अंगार..अमित निश्छल
मुँह फेर लिया फिर आज चाँद
फिर भी मैं तुझे बुलाता हूँ,
कातर नयनों से उबल रहे
मनोभावों को ठहराता हूँ;
चाहो, तो लो अग्निपरीक्षा

ऊपर भी पिता...और नीचे भी पिता
पिता नहीं होते तो हम होते ही नहीं...

भाई अमित जी का उनसे ही ब्लॉग गलती से हट गया
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‘उलूक’
मजबूर है तू भी
आदत से अपनी
अच्छी बातों में भी
तुझे छेद हजारों
नजर आ जायेंगे

ये भी नहीं
आज के दिन ही
कुछ अच्छा
सोच लेता



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पिता संघर्ष की आंधियों में हौसलों की दीवार है
परेशानियों से लड़ने को दो धारी तलवार है,
बचपन में खुश करने वाला खिलौना है
नींद लगे तो पेट पर सुलाने वाला बिछौना है।

और अंत में ...

पिता क्या है...?
ये एक ऐसा प्रश्न है
जिसका जवाब शायद है मेरे पास
पर मैं समझा नही पाऊँगी क्योंकि
मेरे तरकश में शब्दों के इतने तीर नहीं है।

आज बस
कल फिर मैं ही
सादर वंदन

5 टिप्‍पणियां:

  1. हा हा रचनाएं भी सनातनी बना ली आप मतलब यहाँ भी तनातनी फैलाएंगी ? आभार उलूक की बकवास को स्थान देने के लिए यशोदा जी |

    जवाब देंहटाएं
  2. पितृ दिवस की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं। अपने पिता और बड़े बुजुर्गों का सम्मान करें।

    लिंकों का सुंदर संकलन और इसमें मेरी रचना को स्थान देने के लिए तहे दिल से आभार।

    जवाब देंहटाएं
  3. सराहनीय,पठनीय संकलन पर ये सनातनी का तड़का मेरी समझ में नहीं आया दी।
    मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार आपका।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शिगूफा है, मैं भी नहीं न समझी हूं अब तक
      सादर वंदे

      हटाएं

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