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गुरुवार, 6 जून 2024

4149...जैसे जाड़े की रात में चौराहे पर खड़ा बूढ़ा,...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ओंकार जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए अपनी पसंदीदा रचनाएँ-

७७०.मैं और मेरा मकान

मेरा मकान-

अकेला,

जैसे घर के कोने में पड़ा

पिछले साल का कैलेंडर,

जैसे जाड़े की रात में

चौराहे पर खड़ा बूढ़ा,

जैसे अँधेरे में टिमटिमाती

गाड़ी की पिछली बत्ती.

*****

अब चलो, पर्यावरण की बात सुनें

बरगद लगायें बंजर ज़मीनों पर

न हो, गमलों में चंद फूल खिलायें

 

पिघल रहे ग्लेशियर बड़ी तेज़ी से

पर्वतों पर न अधिक  वाहन चलायें

*****

धरती कहे पुकार

बन रहे हैं

देखो ऐसे ही अब

हमारे खेत।

 दूर-सुदूर

दिख रहा है यहाँ

एक ही पेड़।

*****

 

अब न करेंगे हम #प्रकृति को तंग,

अब न करेंगे हम #प्रकृति को तंग,

कंकाल बना देह नदी का ,

चटक गया सीना धरती का,

पत्थर पहाड़ तपे भट्टी सा ,

जैसे स्नान किये सब अग्नि का ।

*****

एक कहानी- फेसबुक वॉल से... जो बदल देगी आपका नज़र‍िया

"बिटिया की शादी और घर मरम्मत के लिए जरूरत थी, हम गरीब को कौन इतनी बड़ी रकम देता..तो रामाधीर ने बड़ी मदद की थी उस समय" उसने लगभग रोते हुए वो पैसे उसके बेटे को दे दिए

उस वृद्ध व्यक्ति की आँखों में रामाधीर के लिए श्रद्धा भाव देख, मन मेरा भी भर आया और मैं सोचने लगा कि, हमसे सूद पर पैसे लेकर, उस महान व्यक्ति ने किसी गरीब की समय पर मदद की और उससे सूद भी नहीं लिया..

..मैं..! मेरा मन मुझे धिक्कारने लग गया।

*****

फिर मिलेंगे।

रवीन्द्र सिंह यादव

 

5 टिप्‍पणियां:

  1. ..मैं..! मेरा मन मुझे धिक्कारने लग गया।
    शानदार चयन
    आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सुप्रभात ! पर्यावरण का संरक्षण हम सभी की ज़िम्मेदारी है, इसी बात को चेताती हुईं सुंदर रचनाओं का संयोजन, आभार !

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय सर,
    मेरी लिखी रचना ब्लॉग " अब न करेंगे हम प्रकृति को तंग " को इस अंक में समाहित करने के लिए बहुत धन्यवाद । इस अंक में सम्मिलित रचनाएं बहुत ही सुंदर है । सभी आदरणीय को बहुत बधाइयां । । सादर ।

    जवाब देंहटाएं

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