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गुरुवार, 2 मई 2024

4114...जीने से मगर मरने तक मेरे हिस्से कुछ न आये...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया रोली अभिलाषा जी की रचना से।

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में आज पढ़िए सद्यरचित पसंदीदा रचनाएँ-

775. वक़्त आ गया है

मन-मस्तिष्क का लावा मुझे जलाता है

पर यह आग दिखती क्यों नहीं?

क्यों मैं जलती रहती हूँ?

अंगारों पर चलती रहती हूँ

ख़ुद को आग में जलाती रहती हूँ

सभी के सामने मुस्कुराती रहती हूँ

मेरे जलने-रोने से संसार प्रभावित नहीं होता

मैं ही धीरे-धीरे मिटती जाती हूँ

 

७६५. बदली हुई हवा

वो जिसके आने से बरसता है अँधेरा,

राजनीति के आकाश का नया सितारा है.

 

लोग यहाँ कविता के शौक़ीन लगते हैं,

लगाइए अगर कोई मसालेदार नारा है.

 

विदाई का नेग बारिश...

जिस होम स्टे में रुकी थी वहाँ भी आवाज़ लगाने पर आर्यन नज़र आता वरना लगता है यह सारा संसार मेरा ही है, यहाँ सिर्फ मैं ही हूँ। बालकनी से जो खूबसूरत दृश्य दिखा उसके बाद लगा ये दिन सुंदर होने वाले हैं। सबसे पहले कमरे के सोफ़े को बालकनी में रखवाया और एक छोटी टेबल भी। बस फिर जम गया आसन मेरा और मेरी तनहाई का....


श्रमिक दिवस! 

ये उनके हक के पैसों खुद रख लेने या फिर जिस पैसे को बचाने की हमारी नीयत रहती है। हम उससे कुछ पीना चाहते हैं या फिर धुएँ में उड़ाते हैं, सब पर लागू नहीं होता है लेकिन अगर हम किसी को भाड़े पर लेकर सेवा करवा रहे हैं तो हम इतने सम्पन्न होने हैं कि उनके परिश्रम की पूरी कीमत अदा कर सकें। अगर आप चाहें तो शायद वे नमक के साथ रोटी खाने की जगह पर किसी भी सब्जी से खाने की सोच सकते हैं। 


मजूर

बाग लगाये

घर बनाये

जीने से मगर मरने तक

मेरे हिस्से कुछ न आये

*****

रवीन्द्र सिंह यादव


4 टिप्‍पणियां:

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