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गुरुवार, 13 जुलाई 2023

3817...समय का अश्व दौड़ा जा रहा है...

शीर्षक पंक्ति: आदरणीया अनीता जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पढ़िए आज की पाँच रचनाएँ-

किसने बदले तेवर उपजाऊ धरा ने

उस पर मौसम का प्रभाव पडा

जहां बीज बोए गए थे

वे प्रस्फुटित  ना हुए \|

जहां खेत खाली पड़े थे

कुछ बोने का मन ना  हुआ

कोई निश्चितता नहीं थी

वर्षा के आगमन की |

स्पंदन

समय का अश्व दौड़ा जा रहा है

युग पर योग बिताते जाते हैं

पर नहीं छुकाती है ऊर्जा की यह

अजस्र खान

जो इस सारे आयोजन का

आधार है

इसीलिए तो मनुज को

भगवान से प्यार है!

निराकार सत्ता--

फिर भी पुनः पुनः आकाश फैलाये अपनी

बाहें, वृष्टि वन हों या धू धू

मरू प्रांतर, उसकी

प्रतिछाया

अदृश्य

होकर भी करे प्रतिपल आलिंगनबद्ध!

आख़िरी से पहले की ख्वाहिशें

"फिर थोड़ी सी मुझे ज़मींदोज कर देना वहाँ, जहाँ चूमते हैं ये पाँव अलसुबह की ओस. महसूस लूँगी हर रोज तुम्हारी छुअन, थोड़ी सी मुझे जला देना उस पेड़ की लकड़ियों संग जिसे सींचा है तुम्हारे बचपन ने, गले लगाया है तुम्हारे यौवन ने, अपने आँसुओं से भिगोयी हैं जिसकी पत्तियाँ तुमने, मेरी हड्डियों से बनाना काला टीकाजो लगाया जाये प्यार भरी पेशानी पर. बाक़ी बची मुझ से बनाना एक नजरबट्टू..जहाँ भी रहो तुम मेरी आज़ाद रुह के साथ वहाँ रखना. पूरी कर देना मेरी आख़िरी से पहले की ख्वाहिशें"

आपा खोती प्रकृति

फिर वही ''तो''....! इस तो का तो सरल सा उपाय तो था, पर उस पर किसी ने अमल करने की जहमत नहीं उठाई ! कायनात का कायदा है, इस हाथ ले उस हाथ दे ! फिर कुदरत तो कभी भी उतना वापस भी नहीं चाहती, जितना वह लुटाती है ! पर हमारी खुदगर्जी ने यह भुला दिया कि किसी की भलमनसाहत का नाजायज फ़ायदा नहीं उठाना चाहिए ! क्या फायदा उस ज्ञान का, उस विकास का, जो अपने ही विनाश का कारण बने ! अभी भी यह एक चेतावनी ही है कि सुधर जाओ, नहीं तो...........!

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

 


4 टिप्‍पणियां:

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