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शुक्रवार, 23 जून 2023

3797....कविता! तुम्हें जीना ही होगा

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल अभिवादन।
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सोचती हूँ अक़्सर
लिखने वालों के लिए है भाव या भाषा अनमोल 
या पूँजी है आत्मा के स्वर का संपूर्ण कलोल?
महसूस होता है
वर्तमान परिदृश्य में...
चमकदार प्रदर्शन की होड़ में
बाज़ारवाद के हाँफते दौड़ में
सिक्कों के भार से दबी लेखनी, 
आत्मा का बोझ उठाए कौन?
बेड़ियाँ हैं सत्य, उतार फेंकनी
क्योंकि
स्वार्थी,लोलुप अजब-गजब किरदार,
आत्मविहीन स्याही के व्यापारी, ख़रीददार,
बिचौलिए बरगलाते हैं मर्म
कठपुतली है जिनके हाथों की
 सत्ता और धर्म...। -श्वेता

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आइये आज की रचनाओं के संसार में-

संवेदनहीन,कृत्रिमता के इस दौर में 
भावनाओं से भरी सकारात्मक लेखन का
आह्वान करती एक सहज,सुंदर और महत्वपूर्ण रचना।

पथराई संवेदना पर 
बिछानी होगी 
मख़मली मिट्टी की चादर 
ओक लगाकर 
पीना होगा 
महासागर-सा अप्रिय अनादर

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अप्रिय,अमर्यादित, तथ्यहीन व्यवहार पर
असंतोष व्यक्त करना,विरोध के स्वर मुखर करना 
लेखनी का धर्म है।

सह नहीं सकते कभी निंदा स्वयं  की वे
ये सियासी हैं महज जयकार देखेंगे
उस बार धोखे में तुम्हारे आ गए थे हम
क्या हमें करना है अब इस बार देखेंगे
याचकों जैसे कभी जो लोग आते थे
बाद में अकसर उन्हें मक्कार देखेंगे

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जीवन यात्रा में आत्ममंथन की महत्वपूर्ण भूमिका है
जो जीवन के हर पड़ाव पर आगे बढ़ने के लिए
दृष्टिकोण प्रदान करती है,प्रेरणा देती है।
लड़खड़ाया
गिरा, संभला
उठा ,चला
जीवन भर
खुद को
यात्री ही पाया


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मरूस्थल की स्मृतियों की हरियाली 
जीवन में सकारात्मकता और उम्मीद बनाये रखते है।
 अब 
कुछ पल टहलने आए बादल 
कुलांचें भरते हैं
अबोध छौने की तरह 
पढ़ते हैं मरुस्थल को 
बादलों को पढ़ना आता है
जैसे विरहिणी पढ़ती है 
उम्र भर एक ही प्रेम-पत्र बार-बार
वैसे ही
पढ़ा जाता है मरुस्थल को 
मरुस्थल होना

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और चलते-चलते वर्तमान लेखन पर एक
महत्वपूर्ण लेख। 
बोलना लिखना और पढ़ना

अब संपादक और संपादन (खुद को सुधार) का काम बचा नहीं। रही-सही कसर सोशल मीडिया की तकनीकी सुविधा ने निकाल दी। अपवाद को छोड़ दें तो, पहले के लेखक अपने लिखे को बार-बार सुधारते थे, अगला काम संपादक करता था। अब स्थिति यह है कि न खुद से सुधार का अवसर है, न संपादन की कोई गुंजाइश! कहाँ वे दिन जब संपादकों को भी संपादक की जरूरत होती थी, कहाँ आज का समय!भाषा का नैसर्गिक रूप बोलना है।
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आज के लिए इतना ही

कल का विशेष अंक लेकर

आ रही हैं प्रिय विभा दी।


9 टिप्‍पणियां:

  1. सह नहीं सकते कभी निंदा स्वयं की
    एक तेज धार वाली प्रस्तुति
    आभार..
    सादर...

    जवाब देंहटाएं
  2. या पूँजी है आत्मा के स्वर का संपूर्ण कलोल?

    यही असल है, अच्छी रचना

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह! श्वेता ,सुंदर भूमिका ,धारदार कविता के साथ ..।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर प्रस्तुति | हिन्दी आभा भारत पर टिप्पणी करने पर लिखा आ रहा है : इस ब्लॉग पर केवल टीम के सदस्य ही टिप्पणी कर सकते हैं|

    जवाब देंहटाएं
  5. आज कल
    आत्मा गिरवी है
    लिखने वालों की
    बस वही लिखते हैं
    स्वान्तः सुखाय
    जिनको नहीं जानता ज़माना
    ज़रा सा नाम होते ही
    भाषा भी भूल जाते हैं
    आज का लेखक
    प्रभावित हो रहा है
    स्वयं लोगों की भाषा से
    और न्यायसंगत भी बताता है
    इसे अपने कुतर्क से ।
    कुछ हैं लिखने वाले जो
    मानते हैं कि मूल्यों को
    करना है स्थापित
    तो कविता तुमको जीना होगा ।
    हर एक को
    करना होगा
    खुद से संवाद
    आत्म मंथन से निकलेगी
    मन की बात
    हमे करना है उलटबांस
    सरकार के हाथ से
    लेनी होगी तलवार
    हर बात का मात्र विरोध
    देश को नहीं सकता संवार ।
    मरुस्थल सरीखी आंखों को
    पढ़ते हुए
    ज़रूरत नहीं होती संपादन की
    आज इसी लिए
    नहीं बचे हैं संपादक भी ।
    पढ़ते गुनते
    आज की ये प्रस्तुति
    लगी बेमिसाल
    भूमिका में कर दिया है
    तुमने कमाल ।

    जवाब देंहटाएं

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