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शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

3658....सृष्टि के पहले दिन...

शुक्रवारीय अंक में
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।

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मेरे छुटपन में मेरी दादी अक़्सर एक कहानी सुनाती
 थी आज आप भी पढ़िए-
किसी गाँव में एक बेहद सरल गरीब दंपत्ति रहते थे खेत-खलिहान तो नहीं थे उनके पास, हाँ एक गाय थी जिसके दूध का पनीर बनाकर वह ग्रामीण शहर के एक दुकान में दे आता और बदले में दुकानदार उसे कभी चावल,आटा तो कभी तेल,चीनी और मसाले देता  जिससे उसका गुज़ारा चल रहा था।
एकदिन उसकी पत्नी ने कहा मैंने आज मक्खन बनाया है तुम आज इसे बेच आओ। ग्रामीण मक्खन लेकर उसी दुकानदार के पास गया, दुकानदार ने पूछा कितना मक्खन है ग्रामीण ने कहा दो किलो दुकानदार ने खुशी-खुशी सारे मक्खन ले लिए और बदले में आटा,चावल, चीनी, मसालों के साथ तेल और कुछ नकद रूपए भी दिए ,ग्रामीण बहुत उत्साहित हुआ और जल्दी ही ज्यादा मक्खन लेकर आने का कहकर वापस गाँव लौट गया। 
दुकानदार बार-बार मक्खन की थैलियों को देख रहा था उसे  मक्खन का वजन कम लग रहा था उसने सोचा सीधा-साधा ग्रामीण है क्या बेईमानी करेगा पर फिर भी शंका समाप्त करने के लिए उसने मक्खन तराजू पर चढ़ाया देखा तो दो सौ ग्राम कम है उसने झट से दूसरी थैली भी चढ़ाया इसमें भी दौ सौ ग्राम कम थे उसका गुस्से के मारे बुरा हाल था। इसबार जब ग्रामीण मक्खन लेकर आया तो वह दुकानदार उसे देखते ही फट पड़ा,खूब खरी-खोटी सुनाने लगा कहने लगा तुम बेईमान हो, तुम झूठे हो, मक्खन का वजन कम था  इस बार भी कम होगा कहकर ग्रामीण के द्वारा लाए मक्खन की थैलियों को तोलने लगा और दिखाने लगा देखो सबमें दो सौ ग्राम कम है ग्रामीण हक्का-बक्का दुकानदार के सामने हाथ जोडकर खड़ा हो गया और बोला सेठ जी मैं गरीब आदमी जैसे-तैसे करके पुरानी डलिया से तराजू तो बनवा लिया तोलने के लिए बटखरे कहाँ से लाता  इसलिए आपके दिए किलोभर चावल से मक्खन का वजन तोलकर पोटली बनायी है।
आप कहानी का संदेश और दुकानदार की हालत समझ सकते हैं।

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अब आइये चलते हैं रचनाओं के संसार में-

आज की पहली रचना में कवि के 
गहन मनोभावों को
पढ़ने का प्रयास करते हुए-
तुम क्या नहीं जानते /शांति का प्रतीक चिह्न
नन्हा, मासूम कबूतर/तुम्हारी मजबूत हथेलियों की 
कैद में सहमा हुआ छटपटाता रहता है
उस स्त्री की तरह ही/जो भरमा जाती है जादुई बातों से,
पुचकार सकते हो जिसे/रोज़-रोज़ बिखेर कर दानें।
 तुम सजग हो जाते हो/जब तुम्हारे बलपूर्वक किये गये
उपक्रमों से स्वतंत्र होने के लिए
वो जूझती हैं/तब तुम उदारता का ढोंग करते हो
क्योंकि तुम जानते हो/तुम्हारे लिए आसान नहींं होगा
पंख खोलती चिड़िया को पा लेना
पर बहुत ही आसान होगा/उसके पंख मरोड़कर चल देना...।
हैं सृष्टि के पहले दिन से ही स्वयंसिद्धा नारी,
जिस दिन से वो गर्भ में अपने हैं गढ़ती सृष्टि।
ना जाने क्यों समाज मानता कमजोर कड़ी ?
फिर ढोंग नारी दिवस का दुनिया क्यों करती ?

हमारा पूर्ण अस्तित्व भावनाओं की गीली यादों से भरी एक गठरी ही तो है, जिसे हम हर वक़्त उठाए या लटकाए चलते रहते हैं।  सोते समय भी उसे तकिये की तरह इस्तेमाल करते हैं, जागते-सोते हर समय इन्हीं में उलझे रहते हैं।  इसी गठरी की गांठे खोल समय-समय पर अपने मीठे-कड़वे अनुभवों को भावुकता के पालने में बैठाकर अतीत और भविष्य के बीच झुलते हुए वर्तमान जीना ही भूल जाते हैं और स्वयं
को आहत करते हैं।


वक्त के साथ चलते-चलते
जब पुरानी बातें कभी-कभी
दिल के कोने से निकल कर
आँखों के सामने दिखती हैं
तब मन का कुछ असहज सा
हो जाना, क्या स्वभाविक नही है!
यदि स्वीकार भी कर लूं तो
ये बावरा मन न जाने क्यूं
मजबूर कर देता है सोचने के लिए।
बीते दिनों के संघर्ष को,
राग और विराग को,


लाखों – करोड़ों का
 लेखा -जोखा/विश्लेषक बताते रहे
किसे मिला मौका
किसके साथ हुआ
फिर से  धोखा/एंकर चीखते-चिल्लाते रहे
हम मुँह बाये,
दिमाग चलाने का शो-ऑफ करते
पक्ष-विपक्ष में उलझे
ब्लड-प्रेशर बढ़ाते रहे...।
पढ़िये एक समसामयिक रचना।
तू आंकड़ों की बात कर
या डॉलरों पे आह भर
हम यू. एन. में ईतरा रहे
पाक को चिढ़ा रहे
चाइना को झूला रहे
छप्पन को फुला रहे

जीवन एक यात्रा है जो अपने अंर्तमन की यात्रा करता है 
वो इस संसार में आवागमन के रहस्यों के उस पार पहुँच जाते हैं और जो बाह्य जगत की  यात्रा करते है वो अगले जन्म का इंतज़ार करते है।प्रकृति में होने वाले
परिवर्तनों के माध्यम से संपूर्ण जीवन-गाथा 
कहती एक रचना।

निरंतर प्रवाह से जल धार के
मन के भी मौसम होते हैं और तन के भी
जैसे बचपन भी एक मौसम है
और एक ऋतु तरुणाई की
जब फूटने लगती हैं कोंपलें 
मन के आंगन में
और यौवन में झरते हैं हरसिंगार


और चलते-चलते
अनेक बार प्रयास किय मैंने
पृथ्वी की भाषा का अनुवाद भावनाओं में करने का
जीवंत हवाओं की ताल पर फुदकती मासूम भंगिमाओं के
परों को प्रखर सूर्य से छुपाकर विशाल छाया में समेटने का 
भगीरथ प्रयास सृष्टि का सबसे पवित्र संवाद है।
वृक्ष: आपकी ही बात नहीं, पतझड़ की शुष्कता सभी को उदासी से भर देती है लेकिन बसंत का आगमन पतझड़ के बाद ही होता है इसलिए सब मौन होकर रूखापन झेल लेते हैं। और अगर सच कहें तो उसमें बुरे लगने जैसी कोई बात है भी नहीं। ये तो प्रकृति देवी का बनाया गया नियम हैजिसे कोई भी तोड़ नहीं सकता। आगे-पीछे आना जाना ही संसार की नियति। 

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आज के लिए इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर
आ रही है प्रिय विभा दी।

8 टिप्‍पणियां:

  1. जी ! सुप्रभातम् व नमन संग आभार आपका ब्लॉग जगत के इस मंच पर अपनी सतरंगी प्रस्तुति में मेरी बतकही को स्थान प्रदान करने के लिए .. बस यूँ ही ...
    आज की भूमिका की कहानी के पटाक्षेप में निहित संदेश हमें दुकानदार वाले पात्र में हमारी करनी और ग्रामीण वाले पात्र में उस करनी का फल बतलाता प्रतीत होता है .. शायद ...
    आज भी हरेक रचनाओं के पूर्व टाँकी गयी आपकी गढ़ी गई टिप्पणियाँ ही जाने-अंजाने अनुपम कृतियाँ बन पड़ी हैं .. शायद ...

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन अंक
    आज रेडियो देहरादून की टिप्पणी हमारे से पहले, राम करे ऐसा हर दिन हो
    आभार,
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी ! तथास्तु .. शायद ...
      सुप्रभातम व नमन संग आभार आपका एक नया संज्ञा/विशेषण प्रदान करने हेतु .. 'रेडियो देहरादून' .. 😂😂😂 बस यूँ ही ...

      हटाएं
  3. सुप्रभात! पठनीय रचनाओं का अति मनोयोग से सजाया गया गुलदस्ता, वाक़ई आज के अंक में कुछ और ही बात है, आभार 'मन पाए विश्राम जहाँ को' शामिल करने के लिए श्वेता जी!

    जवाब देंहटाएं
  4. भूमिका में उद्घृत कहानी... बहुत ही गंभीर संदेश दे गई। दादी नानी की कहानियों से हमारा आज का लेखन समृद्ध होता है।
    संकलन की सुंदर प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  5. हमेशा की तरह लाजवाब प्रस्तुति उत्कृष्ट लिंकों से सजी....भूमिका में दादी की सुनाई सुंदर संदेशप्रद कहानी शेयर करने हेतु धन्यवाद।सभी लिंक पर आपकी रचनात्मक प्रस्तुतियाँ मन मोह रही ।

    जवाब देंहटाएं
  6. आदरणीया श्वेता सिन्हा जी ! नमस्कार !
    रचना को मंच देने के लिए एवं
    आपके प्रोत्साहन एवं आशीर्वाद के लिए भी
    बहुत बहुत आभार !
    जय श्री कृष्ण जी !

    जवाब देंहटाएं

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