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गुरुवार, 12 जनवरी 2023

3636...जिन्हें रुकना नहीं होता, वे इतना क़रीब क्यों आते हैं?

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ओंकार जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय अंक में पाँच पसंदीदा रचनाओं के लिंक्स के साथ हाज़िर हूँ।

आइए पढ़ते हैं आज की चयनित रचनाएँ-

६९१. गाँव का स्टेशन

रात भर गुज़रती हैं

रेलगाड़ियां मेरी बग़ल से,

उचटती रहती है मेरी नींद,

जिन्हें रुकना नहीं होता,

वे इतना क़रीब क्यों आते हैं?

कुछ कम तो न था...

बह गया आँख से पानी, रिस गए दिल के छाले

यूँ  शिद्दत से छुपाए थे, मेरा ज़र्फ़ कुछ कम तो न था।

जिंदगी खर्च होती रही

भूल जाते हैं जीना अक्सर जिंदगी हम

जीवन की आपाधापी में

रुकता नहीं वक्त जिंदगी की राहों में

छोटी सी जिंदगी के हर लम्हें को

खर्च करो दिल खोल कर जीवन में

कोई कोई ही पहुँचे घर

चाहों से यह जग चलता है

पर टिका हुआ अचाह बल पर,

मंज़िल दोनों के पार खड़ी

कोई कोई ही  पहुँचे घर!

बड़ी कातिल है मुस्कुराहट मेरी

जबसे अलकें गिराने लगी माथ पर

इठलाती बलखाती चलने लगी राह पर

लोग कहते बड़ी शोख़ है नज़ाकत मेरी

कटि नागन सी और भी मटकाने लगी मार्ग पर।

*****

फिर मिलेंगे।

 रवीन्द्र सिंह यादव

 


7 टिप्‍पणियां:

  1. व्वाहहहहहहह
    सुंदर अंक
    आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सुप्रभात ! सराहनीय रचनाओं का सुंदर संकलन, आभार मन पाए विश्राम जहाँ को स्थान देने हेतु रवीन्द्र जी !

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह!बहुत खूबसूरत प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर संकलन। इसके शीर्षक ने मुझे आकर्षित किया।

    जवाब देंहटाएं

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