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सोमवार, 21 नवंबर 2022

3584 ...लिव-इन के फेर में हिन्दू लड़कियां ही क्यों फंसती हैं ? ऐसा चलन मुस्लिम/ईसाई समुदाय की लड़कियों में लगभग शून्य क्यों है ?

सादर अभिवादन
इस सप्ताह का एक ज्वलन्त प्रश्न


लिव-इन हमारी संस्कृति का कैंसर है। सोहबत के ऐसे पश्चिमी तौर-तरीकों को अंग्रेजी मुहावरों में लपेट कर रखने से वह ग्राह्य तो नहीं हो सकता। है तो ये रखैलों का रिश्ता— लड़का लड़की का या लड़की लड़के का, जैसा कह लें। अक्ल का टोटा, तो लगा लो अंग्रेजी मुखौटा ! कैंसर को फोड़ा कह देने से दर्द तो नहीं जानेवाला।

लड़की मातृहीना थी। यह उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य था। पिता थे, तो उन्हें माँ भी बन जाना था जो वह नहीं बन पाए। कुछ लोग इसे पिता की गलती या अयोग्यता भी मान सकते हैं। मैं ऐसा नहीं मानता हूं। यह उस अभागे पिता की सीमाएं थीं कि वह बेटी को समझने-समझाने का लय नहीं बिठा पाए । ‌ इसीलिए कहा गया है कि पैदाईश से परवरिश की अहमियत बहुत ज्यादा है। परवरिश के कारण बच्चों की जिंदगी बनती बिगड़ती है।

सवाल के अंतिम हिस्से पर आता हूं। कसाई मुसलमान था या ईसाई ? यह सवाल मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए उछाला गया है, चाहे जिसने उछाला हो। सवाल तो यह पूछा जाना चाहिए कि ऐसे अंतर धार्मिक सहजीवन के फेर में हिन्दू लड़कियां ही क्यों फंसती हैं ? ऐसा चलन मुस्लिम/ईसाई समुदाय की लड़कियों में लगभग शून्य क्यों है ?
- एक आलेख का हिस्सा

रचनाएँ



कुछ होते हैं तेरे जैसे भी ‘उलूक’ 
आज से नहीं सदियों से बर्बाद हैं
करते कराते कुछ नहीं है बस 
हो रहे कुछ कहीं पर लिख लिखा कर आबाद हैं |




सूर्य उगा है नीले नभ में
खिडकी खोल उजाला भर ले,
दीप जल रहा तेरे भीतर
मन को जरा पतंगा कर ले !

मन की धारा सूख गयी है
कितने मरुथल, बीहड़ वन भी,
राधा बन के उसे मोड़ ले
खिल जायेंगे उद्यान  भी !




मुझे किसी से क्या चाहिए
शिकायत किससे करू
कोई नहीं सुनता मेरी
हार थक कर आई हूँ
इधर उधर क्षमा मांगी |



लघुता-जड़ता पशुता-हन्ता
सब कर्मों के तुम ही नियंता
उन अपराधों को जानूँ
हे योगी .....
तुम से प्रेरित नील गगन है
जिसमें उड़ता विहग सा मन है  
उन परवाजों को जानूँ




चुनाव-प्रभारी नेताजी के साथ में ही थे।ऐसी स्थितियों का उन्हें पूर्वानुमान होता है।उन्होंने स्थिति को तुरंत सँभाला।चुनाव-समिति की सिफारिश वाली सूची लहराते हुए वह नेताजी के कान में फुसफुसाए,‘हम तो इस बार भी इनका टिकट फाइनल नहीं कर रहे थे पर पार्टी इस नतीजे पर पहुँची कि इनके चुनाव न लड़ने से पार्टी का अधिक नुकसान हो सकता है।किसी युवा को लात खिलाने से अच्छा है कि इन पर ही दांव लगाया जाए।युवाशक्ति में भविष्य की अपार संभावनाएँ हैं,इसलिए हम उन को जोखिम में नहीं डाल सकते।यह हमारे समर्पित कार्यकर्ता हैं और प्रयोगधर्मी रहे हैं।‘विधायक-फंड’ को पार्टी-फंड में बदलने में ख़ूब माहिर हैं।


आज इतना ही
सादर

7 टिप्‍पणियां:

  1. पठनीय रचनाओं की खबर देता सुंदर अंक, वाक़ई बेहद अफ़सोसजनक और निंदनीय है यह घटना जिसका ज़िक्र आपने भूमिका में किया है, आश्चर्य होता है कि अपने पैरों पर खड़ी, पढ़ी-लिखी लड़कियाँ भी अत्याचार क्यों सहती जाती हैं, शायद आज समाज का साथ जैसी कोई बात नहीं रह गयी है, हर कोई अकेला है। आज के अंक में मेरी रचना को शामिल करने हेतु आभार !

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    उत्तर
    1. इस घटना/दुर्घटना के बाद तो सम्हल जाना चाहिए,
      सादर

      हटाएं
  2. कसाई मुसलमान था या ईसाई ? यह सवाल मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए उछाला गया है, चाहे जिसने उछाला हो।
    तीखी भूमिका। सामयिक प्रश्न। परंतु धर्म विशेष का नाम लिए बिना कहूँगी कि उस धर्म की लड़कियाँ लिव इन या अंतर्जातीय विवाह करती ना के बराबर मिलेंगी। क्या हमारी बेटियाँ आजादी को हजम नहीं कर पा रही हैं ? क्यों उसका दुरुपयोग कर रही हैं ? कहाँ कमी रह जाती है, संस्कारों में, शिक्षा में, परवरिश में, माहौल, में ? कहाँ ?

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  3. सामयिक और यथार्थ पर केंद्रित सुंदर अंक ।

    जवाब देंहटाएं

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