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मंगलवार, 13 सितंबर 2022

3515 ...लखनऊ की भूल भुलैया इमामबाड़ा

सादर अभिवादन
लखनऊ की भूल भुलैया इमामबाड़ा

ईरानी निर्माण शैली की यह विशाल गुंबदनुमा इमारत देखने और महसूस करने लायक है। इसे मरहूम हुसैन अली की शहादत की याद में बनाया गया है। इमारत की छत तक जाने के लिए ८४ सीढ़ियां हैं जो ऐसे रास्ते से जाती हैं जो किसी अन्जान व्यक्ति को भ्रम में डाल दें ताकि अवांछित व्यक्ति इसमें भटक जाए और बाहर न निकल सके. इसीलिए इसे भूलभुलैया कहा जाता है। इस इमारत की कल्पना और कारीगरी कमाल की है। ऐसे झरोखे बनाए गये हैं जहाँ वे मुख्य द्वारों से प्रविष्ट होने वाले हर व्यक्ति पर नज़र रखी जा सकती है जबकि झरोखे में बैठे व्यक्ति को वह नहीं देख सकता। ऊपर जाने के तंग रास्तों में ऐसी व्यवस्था की गयी है ताकि हवा और दिन का प्रकाश आता रहे. दीवारों को इस तकनीक से बनाया गया है ताकि यदि कोई फुसफुसाकर भी बात करे तो दूर तक भी वह आवाज साफ़ सुनाई पड़ती है। छत पर खड़े होकर लखनऊ का नज़ारा बेहद खूबसूरत लगता है। आप कभी लखनऊ जाएं तो इन्हें अवश्य देखिए, शानदार हैं ये।

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मैं देखने में इतना डूबी कि चित्र लेना भूल गई

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''ठीक है" कह कर उन्होंने कहा कि मैं अपने सीनियर सिटीजन ग्रुप में मैसेज डाल देती हूं...वरना मुझे मॉर्निंग़ वॉक के लिए पार्क में ना पाकर मेरी सहेलियां परेशान होगी।''
शिल्पा जी ने सीनियर सिटीजन ग्रुप में मैसेज डाल दिया और ग्रुप से लेफ्ट हो गई। उन्हें किसी के सहानुभूतिपूर्ण शब्दों की जरूरत नहीं थी। दूसरे दिन वृद्धाश्रम जाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। अचानक डोअर बेल बजी। अंकिता ने दरवाजा खोला और देखा तो उसका बेटा अमन था।

''अमन...तुम अचानक...कैसे...?'' अमन ने अंकिता के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया। दादी के पास जाकर दादी के पैर छूते हुए उनके गले लग कर कहा,''दादी माँ, चलिए...हम हैदराबाद चलते है। दो घंटे बाद हमारी फ्लाइट है। कल ही सुमित (दोस्त) ने मुझे बताया कि मम्मी-पापा आपको...खैर, आप मेरे साथ हैदराबाद चलिए।''



रचे इन्दु पर इन्दु, मेघ बन लहरें कुन्तल।
दो अधरों के मध्य, दंत एल ई डी चंचल।





अनेकानेक संवाद-परिसंवाद के मध्य ही हम अपनी सृजनशीलता में भाषा की आत्मा को सर्वोपरि रखकर, संपूर्ण मौलिक जगत से एक अटूट संबंध बनाते हुए स्वयंसिद्ध हो सकते हैं। शब्दबोध से शब्दत्व तक पहुँचने का केवल यही एक मार्ग है।




नीबू पार्क की दहलीज पर
कुछ यूं मुस्कुराए
मानो गोमती का किनारा
तुम तक चल कर आ रहा हो
और कहता हो कि
मुझ में तुम यूं बसे हो
जैसे बसी है तहज़ीब लखनऊ में। ।



आज बस

सादर 

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति। मेरी रचना को पांच लिंको का आनन्द में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, यशोदा दी।

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  2. मेरे दिल में बसे लखनऊ को मंच पर स्थान पाकर हर्षित हूं। सादर आभार
    सभी लिंक बेहद पसंद आए।

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  3. लखनऊ का नजारा सा बेहद खूबसूरत प्रस्तुति।

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  4. नवाबों का शहर लखनऊ वाकई काबिलेतारीफ। मेरा आना जाना.प्रायः होता है। मैं गया हूँ और अभिभूत हो गया। उत्कृष्ट लेख।

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