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मंगलवार, 26 जुलाई 2022

3466 ...मितरों!! बुरे दिन चले गये कि नहीं?

सादर अभिवादन .....
बोल बम
रुत भीगी सी...
निमिष मात्र में
गगन घट
छलक गए
बिखरे
हल्के रंग
अबीर से सृष्टि के/
सबसे सुखद
जश्न की बारी है।

अब रचनाएँ ....



चींटी बने हो
रौंदे तो जाआगे ही
रोना धोना क्यों?
 
सूर्य के पांव
चूमकर सो गए
गांव के गांव।






अक्सर छत की मुंडेर या दीवार पर खुरचना या कुरेदना मानव प्रकृति है... कुरेदते वक्त हम अनायास ही सृजित कर रहे होते हैं, मैंने यही कुछ आज खोजा... जब में इन खुरचनों को देख रहा था उसी समय मुझे इनमें जीवन और कुछ बोलते चित्र नज़र आए...।






देखता ही रह जाता है
अपनी उजड़ती दुनिया को
पर शिकायत किससे  करे |
मैंने भी यही सब देखा है भोगा है
जैसा देखा अनुकरण किया है
यही है एक उदाहरण
जिसे  मैंने यथार्थ में जिया है |




अबकी रहे
तिरंगा घर -घर
देशगान की शाम हो,
उसको भय क्यों
जिसके घर में
विश्व विजेता राम हो,
कोई फिर से
प्राण फूँक दे
सोए गोगा वीर में.





तभी दूर कहीं कलेक्टरेट के मैदान से लाऊड स्पीकर पर 
किसी बहुत बड़े नेता की आवाज सुनाई दी:
’मितरों, अच्छे दिन आ गये हैं, आ गये कि नहीं?’
समवेद स्वर गूँजे ..आ गये!!
मितरों!! बुरे दिन चले गये कि नहीं?
समवेद स्वर गूँजे ..चले गये!!
मितरों!! जो बुरा काम करते हैं मैने उनके लिए अच्छे दिन की गारंटी नहीं दी थी कभी!!


आज बस
सादर

 

7 टिप्‍पणियां:

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