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रविवार, 17 जुलाई 2022

3457 ..रात तो संग में बीत गई, जिंदगी बीत न पाई तो

सादर अभिवादन .....
दस तारीख से देवता सो गए
चौमासा शुरू...
सिर्फ हरा देखना है
खाना नहीं न है
पता नहीं क्यूँ...ये
त्योहार क्यों आते हैं ...इन दिनों
जब सोए रहते हैं देवता गण....
अब आज की रचनाएँ पढ़िए



वो आके पहलू में बैठ गई,
ये झूठ न हो, सच्चाई तो?

रात तो संग में बीत गई,
जिंदगी बीत न पाई तो?




शाम दुआरे बैठी कब से
दिन ये ढले कब जाने
आब सुनहरी स्याह हुई अब
रात चले कब जाने  


.

चारों ओर
सूखा और सिर्फ सूखा
प्यासे हैं बाग, तड़ाग,
व्यर्थ हो गई
सब प्रार्थना
और
इबादत हैं





न फिक्र किसी  
की होती हमको
न दर्द कहीं
पर होता।
इक ख्वाब परेशाँ करता है
सच होता तो क्या अच्छा होता।





दर्द तो उमड़ा बहुत आँसुओं  में बह जाने के लिए
हम तो बस हँसते रहे आँसुओं को छुपाने के लिए ।

ज़िंदगी को दर्दे अश्क़ का हर रंग दिखाने के लिए
दिल में कर लिया हर दर्द जज़्ब मुस्कुराने के लिए
मेरी तकलीफ़ों का अंदाज़ भला क्यूँ हो किसी को
ख़ुद को ही भूला दिये जब उसे भूल जाने के लिए ।





दम तोड़ते पीले पन्नों पर
लिखी मेरी भावनाओं
के बेशकीती धरोहर
जिसके सूखे गुलाब
महक रहे हैं
गीली पलकों पर समेटकर
यादें सहेजकर रख दिया

आज बस

सादर 

4 टिप्‍पणियां:

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