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शुक्रवार, 10 जून 2022

3420.....जीवन.की यातनाओं से लड़ते हुए

शुक्रवारीय अंक में 
आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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हवायें हिंदू और मुसलमान हो रही हैं,
मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही हैं।
मेरी वैचारिकी तटस्थता पर अंचभित
जीवित हूँ कि नहीं साँसें देह टो रही हैं।

पक्ष-विपक्ष अपनी रोटी सेंकने में व्यस्त हैं,
झूठ-सच बेअसर आँख-कान अभ्यस्त हैंं,
बैल कोल्हू के,बुद्धिजीवी वर्तुल में घूमते
चैतन्यशून्य सभा में क़लम गूँगी हो रही है।

मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही है।
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आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-

अनजान पगडंडियाँ लग रही हैं,
 आँसुओं से धुल रहा छालों भरा पाँव
स्मृतियां थकी-सी कह रही

मांग रहे सन्नाटा
करने अनुसंधान
चुप्पी फिर हो गयी
कौन बने प्रधान
उड़ रहा लाश का
बसाता धुआं
सूख गया एक
चिल्लाता कुआं

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प्रेम की भट्ठी पर चढ़ी
 भावनाएँ खदबदाकर झुलसाती हैं
गलाती हैं उड़ती इच्छाओं की भाप
इतना भी आसान नहीं होता है
सह पाना परिस्थितियों से उत्पन्न

जीवन की यातनाओं से लड़ते हुए 
आती थी तुम्हारी हुलस कर याद 
बावजूद इस जानकारी के
तुम्हें संघर्षरत व्यक्ति के बखान से थी चिढ़

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धमनियों में उतर गया जाने कैसे इतना ज़हर
चेतावनी समझ वरना मिटा देगी इक दिन


सिर्फ दंगों से ना देश जला रहा 
तुम्हारा भविष्य भी है जल रहा
वो तुमको सीढ़ी बनाकर हैं आगे बड़ रहा है 
तुमको खाक की धूल सा कुचल रहा


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बातें कुछ ऐसी कही उसने दिल में काँटे बो गया
ख़ुद को टटोल रही हूँ कबसे लग रहा मानो बहुत


आँसू घुटकती गले के नीचे,
रसोई में खड़ी रोटी सेंक रही थी।
पी गई, सब आरोप, कटाक्ष 
जो छोटे और बड़ों ने  ।
एक सवाल उठा जेहन में - 
कभी सोचा है मैंने अपना क्या क्या खोया है?

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और चलते-चलते
अपनों के सुख के लिए स्त्रियां अपने अस्तित्व को नकार देती हैं
पर स्वाभिमान आहत हो जाए तो वो नहीं

उसके जाने के बाद उसके कहे एक-एक शब्द भावना के कानों में गूँज- गूँजकर उसके मन को आहत करने लगे ।
बड़ी मुश्किल से उसने खुद को सम्भाला और शान्त मन से सोचा तो आज उसे याद आया कि उसकी बड़ी बहन, माँ और सभी सहेलियाँ उसे इसी बात को समझाने के लिये कितनी कोशिश कर रहे थे उसे उस दिन जब उसने अपनी जॉब छोड़ने का फैसला लिया था । 

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आज के लिए बस इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर आ रही हैं
प्रिय विभा दी
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11 टिप्‍पणियां:

  1. वर्तमान समय में जीवन जिस तरह जिया जा रहा है वह सब जानते है,मर रहीं संवेदनाओं की तहों में हमारा दिल,दिमाग और मन दबा जा रहे और हम बिन मौत घुट घुट के मर रहें हैं.
    स्वेता जी आज के लिंक की अद्भुत और यथार्थपरक भूमिका लिखी है.
    साधुवाद आपको
    कमाल के लिंक संजोये हैं
    समल्लित सभी रचनाकारों को बधाई
    मुझे सम्मलित करने का आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर पठनीय सूत्रों से परिपूर्ण उत्कृष्ट अंक प्रिय श्वेता जी । कई रचनाएँ पढ़ी । सुखद अनुभूति हुई।
    बहुत आभार आपका ।

    जवाब देंहटाएं
  3. हवायें हिंदू और मुसलमान हो रही हैं,
    मौन हूँ मैं,मेरी आत्मा ईमान खो रही हैं।
    मेरी वैचारिकी तटस्थता पर अंचभित
    जीवित हूँ कि नहीं साँसें देह टो रही हैं।

    न तटस्थ होना है
    और न ही मौन ,
    देखना ये है कि
    राष्ट्र को
    तोड़ रहे हैं कौन ?

    हवाएँ बदल जाती हैं
    जब राजनीति में
    होती है हलचल ,
    सत्ताविहीन होते ही
    धर्म के नाम पर
    देने लगते हैं
    वो दखल ।

    धर्म के आधार पर
    एक दल हो जाता है
    संगठित
    दूसरा तो रहा है
    हमेशा से खंडित ।

    इसी लिए चाहिए कि
    आओ शंखनाद करें
    महाभारत होना है तो ,
    होने दें ।

    भूमिका के रूप में तुमने अपने मन की कही और मैंने अपने मन की । आज से 50 साल बाद आने वाली नस्लें शायद हमें गुनहगार के रूप में जानें जैसे हम आज अपने पूर्वजों को समझ रहे हैं ।

    प्रस्तुति में शामिल सभी लिंक्स पठनीय और विचारणीय हैं ।
    सस्नेह

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आभारी हूँ दी इतनी सारगर्भित रचना साझा करने के लिए। सही कहा आपने आने वाली पीढ़ियों के लिए हम अपराधी से कम नहीं होंगे।
      सप्रेम
      सादर।

      हटाएं
    2. कविताओं ने मुस्कराना बंद कर दिया है। जब वे तड़पती हैं तो लगता है कि आज कोल्ड एब्सेस फिर से फूट गया है। अब ऐसी ही कविताएँ सुकून देती हैं, क्योंकि हवाएँ बहुत गर्म हैं।

      हटाएं
  4. बहुत बढ़िया लिंक्स संयोजन !!

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत खूबसूरत प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  6. समसामयिक समस्याओं पर सारगर्भित मुक्तक की भूमिका एवं उत्कृष्ट लिंकों के साथ लाजवाब प्रस्तुति ।
    मेरी रचना को भी स्थान देने हेतु तहेदिल से धन्यवाद जवं आभार श्वेता जी !
    सभी रचनाएं पढ़ने व उन पर प्रतिक्रिया भी कल समय पर कर ली थी पर यहाँ प्रतिक्रिया मे देरी के लिए क्षमा चाहती हूँ ।
    सभी रचनाकारों क़ बधाई एवं शुभकामनाएं ।

    जवाब देंहटाएं

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