---

सोमवार, 31 जनवरी 2022

3290..... / पतझड़ के पहरेदार और आयो बसंत बहार ......

 पाँच लिंकों के आनंद के साथ हाज़िर हूँ फिर एक बार , आपकी ही संगीता स्वरुप ! 

देखते देखते  इस वर्ष का एक महीना गुज़र गया .... , मतलब कि वक़्त रोके कब रुका है ..... शिशिर  ऋतु जा रही है और बसंत देहरी पर खड़ा आगमन के इंतज़ार में  है .... लेकिन अभी ब्लॉग जगत में बसंत नहीं छाया है , मतलब कि कुछ नयी रचनाओं ने बसंत का स्वागत नहीं किया है .... जब बसंत  की बात सोचती हूँ तो  महसूस होता है कि क्या सच ही कुछ ऐसा है जो बासंती हो ?  मन कह उठता है कि ...... 



मेरे इस शहर में 
बसंत नहीं आता , 
न गमकती 
बयार चलती है 
और न ही 
महकते फूल 
खिलते हैं 

ये तो हुई मेरे मन की बात , अब आपको बताती हूँ कि कैसे ये समाज और समाज के ठेकेदार बसंत न आने देने के लिए क्या कर गुज़रते हैं और बने रहते हैं -- 


बचपन  की किलकारियाँ
 नदी की कलकल 
चिड़ियों का चहकना 
 शोर लगता है जिन्हें ....


 अब आप ही बताइए कि भला ऐसे में कैसे लिखी जायेंगी कवितायेँ बसंत पर ....और ऐसे माहौल को देखते हुए हमारी एक ब्लॉगर चिंतित होते हुए पुकार उठी हैं कि चित्रकार अपने चित्र को  बचाने  के लिए आ जाओ .... 

चित्रकार


अरे ओ चित्रकार
       कौन है तू ,कभी देखा नहीं
       रहता है कहाँ तू ? 
      कैसे भरता है रंग इस जगत में
      कहाँ से लाता है इतने ?
    ये हरे भरे पर्वत ,ये नदियाँ ,ये झरनें


अब ये चिंतन मनन तो हमेशा चलता रहेगा ...... लेकिन ज़रूरी है कि जीवन में संतुलन बना कर रखें ... और जो कुछ ईश्वर प्रदत्त है उसका उपभोग भी करते रहें .... इसी आशय से ले आई हूँ एक लेख --


लेख लिंक पर ही जा कर पढ़ें ...... क्यों कि मजबूत ताला है मुझसे खुला नहीं ... यूँ तो ऊपर भी एक ब्लॉग का  ताला नहीं खुला ,लेकिन कविता  की पंक्तियाँ टाइप करना सरल था सो कर दीं.... ब्लॉगर्स से निवेदन कि ऐसा ताला न लगायें कि चर्चाकार आपकी  पोस्ट न ले पायें .... बहुत मुश्किल हो जाता है और बहुत कोशिश करके जब सफलता नहीं मिलती तो सच ही मन ही मन श्राप सा दे देने का मन हो आता है .....
अब केवल ये श्राप मेरे मन की उपज नहीं है ......  एक सर्जक भी क्रोधित हो न जाने क्या क्या सोच लेता है और वो तो स्वर्ग और नर्क तक का चक्कर काट देवताओं से प्रेरित हो न जाने क्या क्या  लिख डालता  है ...एक बानगी देखिये ...


कभी-कभी इस सर्जक का क्रोध सातवें आसमान से भी बहुत-बहुत ऊपर चला जाता है। शायद बहुत-बहुत ऊपर ही कोई स्वर्ग या नर्क जैसी जगह है, बिल्कुल वहीं पर। हालाँकि उस जगह को यह सर्जक कभी यूँ ही तफरीह के लिए जाकर अपनी आँखों से नहीं देखा है। वह इसका कारण सोचता है तो उसके समझ में यही बात आती है कि वह दिन-रात अपने सृजन-साधना में इतना ज्यादा व्यस्त रहता है कि वहाँ जाने का समय ही नहीं निकाल पाया है। वर्ना वह भला रुकने वाला था।

मैं तो बस यही कहूँगी कि भई ये श्राप की बात छोड़ कर कुछ चिन्तन मनन करें और थोडा ध्यान लगायें  कि श्री कृष्ण ने क्या उपदेश दिए ......  और सोचिये कि  गीता सुनते या पढ़ते क्या क्या भाव मन में आते हैं जो एक प्रश्न बन मन में घुमड़ते रहते हैं ......  तो ज़रा उत्तर देने पहुँचिये .... 



दो-चार दिन पहले सम्पूर्ण गीता को सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वैसे तो कौन नहीं जानता कि गीता का मुख्य सार है- आत्मा अजर-अमर, अविनाशी है तो मृत्यु का शोक कैसा, मृत्यु आत्मा के नये वस्त्र बदलने की प्रक्रिया मात्र है और दूसरा निष्काम कर्मयोगी बनो अर्थात कर्म करो फल की चिंता नहीं करो।

प्रत्येक व्यक्ति अर्थात आत्मा बचपन से ही ये ज्ञान सुन रहा है या यूं कहें कि कई जन्मों से सुन रहा है फिर भी इसे आत्मसात नहीं कर पाता। फिर  क्या मरणासन्न स्थिति में गीता का ज्ञान सुन कर किसी को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है अर्थात किसी को जीवन का ज्ञान मिल सकता है ?


अगर आपको उत्तर सूझ गया हो तो बहुत अच्छा  . यूँ कृष्ण  के दिए उपदेशों पर न जाने कितने ग्रन्थ लिखे गए और उन पर न जाने कितने शोध हुए  लेकिन क्या कृष्ण कभी राधा के प्रेम और उसकी विरह वेदना को पढ़ पाए ?  वैसे तो ये प्रश्न अनुचित है ...क्यों कि राधा के बिना कृष्ण नहीं ..... फिर भी राधा के मन  की बात को अपने शब्द दिए हैं इस रचना में  ........




न भाये कछु राग रंग,
न जिया लगे कछु काज सखि।

मोती टपके अँचरा भीगे,
बिन मौसम बरसात सखि।

हम यहाँ राधा की पीड़ा से प्रभावित हुए बैठे हैं .... जबकि सारी दुनिया ओमीक्रोंन वायरस से जूझ रही है ..... और इसकी सही - सही पहचान हो सके उसके लिए भारतीय वैज्ञानिकों  ने तैयार करी  है किट ...



  • नई दिल्ली, 24 जनवरी (इंडिया साइंस वायर): कोरोना वायरस उत्परिवर्तित (Mutate) होकर निरंतर अपना रूप बदल रहा है। ऐसे में, वायरस के नये उभरते रूपों की पहचान और उपचार चुनौतीपूर्ण हो गया है। ऑमिक्रॉन जैसे कुछ रूपांतरित कोरोना वायरस के संक्रमण के मध्यम लक्षण देखे गए हैं, और इसके संक्रमण के कारण होने वाली मौतों के मामले भी कम हैं। लेकिन, कोरोना का ऑमिक्रॉन संस्करण दुनिया भर में जंगल की आग की तरह बेहद तेजी से फैल रहा है।


इस जानकारी के साथ हमें गर्व है अपने देश के वैज्ञानिकों पर ...... और गर्व है ऐसे रचनाकारों पर जो हमेशा ही आशावादी रह कर प्रेरित करते हैं संघर्षों से जूझने के लिए ....

मेरे दीप तुम्हें जलना होगा


                                                 है अंधियारी रात बहुत,
अब तुमको ही तम हरना होगा...
हवा का रुख भी है तूफानी, फिर भी
   मेरे दीप तुम्हें जलना होगा !!!


और इस रचना के साथ ही मन के निराशावादी विचार कहीं तिरोहित हो जाते हैं  और जो बसंत नहीं आता मेरे शहर ....... वो भी कहीं न  कहीं दिखने लगता है .... 

आवो सखी आई बहार बसंत
चहूं और नव पल्लव फूले
कलियां चटकी
मौसम में मधुमास सखी री...... 


आज  की प्रस्तुति बासंती न हो कर भी कुछ कुछ बासंती रंग में रंगी है .......  आशा है आपको ये रंग पसंद आया होगा ...... फिर मिलते हैं अगली बार कुछ नए रंगों को लेकर .... तब तक के लिए  इंतज़ार करें ...... 

नमस्कार 
संगीता स्वरुप ...






रविवार, 30 जनवरी 2022

3289...एक उम्र तक आते-आते समझौता भी खत्म हो जाता है...

शीर्षक पंक्ति:आदरणीया दीदी विभा रानी श्रीवास्तव जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।

रविवारीय अंक के साथ पाँच पसंदीदा रचनाएँ लेकर हाज़िर हूँ-

चित्र साभार गूगल 

आज शहीद दिवस है। 

बापू की पुण्य तिथि को ही भारत में शहीद दिवस के रूप में याद किया जाता है। 

30 जनवरी 1948 को बापू की हत्या उनको तीन गोलियाँ दाग कर की गई थी। भारत में बापू को अगाध श्रद्धा के साथ याद किया जाता है और इस अवसर पर आयोजित होनेवाले सरकारी एवं ग़ैर-सरकारी कार्यक्रमों में उन्हें श्रद्धांजलि देकर देश के प्रति उनके समर्पण और योगदान पर चर्चाएँ होती है जिनसे देश प्रेरणा लेता है।

गाँधी-दर्शन व्यक्ति में मूल्य रोपता है और जीवन को सामाजिक मूल्यों के साथ जीने का अर्थ देता है। गाँधी-दर्शन का भारत में विरोध मात्र एक कुंठित मानसिकता है जो अहिंसा और सद्भाव से परे सतत अशांति और हिंसा के विचार को प्रश्रय देने में यक़ीन रखती है बशर्ते उन्हें कभी खरोंच तक न आए जो इस विचार को आगे बढ़ाते हैं। गाँधी-दर्शन सरल है किंतु उस सरलता को अपनाना अत्यंत सरल नहीं है वजह है व्यक्ति के अपने अंतरविरोध और जीवन की कठिन चुनौतियाँ।

  बापू को सादर श्रद्धांजलि एवं कोटि-कोटि नमन।

-रवीन्द्र सिंह यादव  

आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

पिंजरे में बंद जीव

पर जब हुआ जर जर पिंजरा

याद आई फिर से स्वतंत्र विचरण की

उस द्वार की जिससे

पिंजरे में  प्रवेश किया था |

आज की

एक उम्र तक आते-आते

समझौता भी खत्म हो जाता है

खुद की आदत

खुद को ही कमजोर

दिखलाने में अव्वल हो जाती है।

भावनाएँ मेरी अब प्रवासी हुईं

कोष श्वासों का भी, यूँ ही लुटता रहा

कुछ मिला ही नहीं, जब तलाशी हुई ।।

शब्द परदेस में जाके सब बस गए

भावनाएँ मेरी अब प्रवासी हुईं ।।

रिश्ते गुलाब रखिये...

शोलों को देखा है बुझते हुए,

थोड़ा शरबती मिज़ाज रखिये।

कोई तूफ़ान ना-ख़ुदा नहीं होता,

हौसले अपने फ़राज रखिये।

अजन्मो गीत

चूळू भर-भर सौरभ छिड़कूँ

लय मतवाळी थिरक रही।

सूर तार बाँधू ताळा रा

अभी व्यंजना मिथक रही।

फूल रोहिड़ा रा है बिखरा

खुड़के झँझरी नोखो से।।

*****

आज बस यहीं तक

फिर मिलेंगे आगामी गुरुवार।

रवीन्द्र सिंह यादव

 


शनिवार, 29 जनवरी 2022

3288... मुकदमा

   हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...

इस महामारी काल में अनेक घटना देखने को मिला, जिसके लिए ऊपरवाले पर करने को जी करता है..

मुकदमा

लक्ष्य मूल्य और साधन

किसने तुम्हें दिए थे ?

आस्था विश्वास भरकर

रास्ते किसने खोल दिए थे?

हो आज आधुनिक तुम

गाल पीटते हो!

कविता पर मुकदमा

जीवित और मृत दोनों सञ्जय को बुलाएं…

कि वे कोर्ट में हाजिर हों…

सुना!

कि इतिहास में जिनकी कब्रें दफन हैं…

सञ्जय, विद्याधर और दामोदर

वो निकल आये हैं बाहर

यह वक्त नहीं एक मुकदमा है

ऐसे जिंदा रहने से नफरत है मुझे

जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे

मैं हर किसी की तारीफ़ करते भटकता रहूं

मेरे दुश्मन न हों और मैं इसे अपने हक में बड़ी बात मानूं...

सच बोलकर संभव नहीं था सच को बताना

इसीलिये मैंने चुना झूठ का रास्ता... 

डरी हुई चिड़िया का मुकदमा

युवा कवि कर्मानन्द आर्य का दूसरा कविता संग्रह है। इसका शीर्षक इतना आकर्षक और मौजूं है कि संग्रह में संकलित कविताओं के निहितार्थ को समझने का केन्द्र बिन्दु-सा प्रतीत होता है। दो कविता-संग्रहों की इस कविता-यात्रा में ‘डरी हुई चिड़िया का मुकदमा’ कवि के विचार-बोध के परिपक्व होने की गवाही देता है। किसी युवा कवि के दूसरे ही कविता-संग्रह की रचनाएँ इतनी स्तरीय हों कि ढूँढने पर भी कोई कविता उस स्तर से नीचे की न मिले, ऐसा बहुत कम होता है।

खिरनी

जबकि थोड़ी देर पहले ही उसने महसूस किया था कि इधर का गाँव काफी हद तक बदल गया था, अब वहाँ पहले जैसा बहुत कम ही बचा था. ज्यादातर नया-नवेला और सुविधा संपन्न. कच्ची मिट्टी के घर, लिपे-पुते फर्श, दीवारों के मांडने, खपरैलों और फूस की छतें, घंटियाँ टुनटुनाते मवेशियों के झुंड, काँच की अंटिया, लट्टू और गिल्ली-डंडा खेलती टुल्लरें, पनघट, चौपाल और वैसी जीवंत गलियाँ अब वहाँ नहीं थीं. न गाँव पानीदार था और न लोग ही पानीदार बचे थे. उनके चेहरों का नूर खो गया था, उमंग और हंसी-ठठ्ठा भाप बनकर कहीं उड़ गए थे।

>>>>>><<<<<<
पुनः भेंट होगी...
>>>>>><<<<<<

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

3287...लीक से हटकर भी सोचा करो

शुक्रवारीय अंक में 
मैं श्वेता आप सभी का 
स्नेहिल अभिवादन करती हूँ।
---------
आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-
शब्द मात्र की साधारण अभिव्यक्ति का साधन नहीं, भावनाओं का विशाल समुंदर होता है जिसकी गहराई में उतरकर ही विचारों के बेशकीमती रत्नों की थाह मिलती है।
शब्द मन से मन तक पहुँचने का सहज,सरल माध्यम है किंतु इसके लिए अभिव्यक्त शब्दों के अर्थ समझ पाना आवश्यक है।

 मौन हृदय के आसमान पर
जब भावों के उड़ते पाखी,
चुगते एक-एक मोती मन का 
फिर कूजते बनकर शब्द।

शब्द ब्रह्म को मेरा प्रणाम



उनके कथ्य को मेरा प्रणाम !
उनके लक्षणों को मेरा प्रणाम !

उनके लक्ष्य को मेरा प्रणाम !
उनके शिल्प को मेरा प्रणाम !
मुखौटाधारियों की नीयत समझने के लिए सजगता आवश्यक है-

मछलियाँ खुली आँखों से निरीह बेफ्रिक्रनींद सोती हैं,

बगुले सोने का अभिनय करके झपटकर शिकार पकड़ते हैं ।




दान धर्म की बातें थोथी
दाँत दिखाने वाले दूजे
छोड़ छाड़ सब गोरखधंधा
देव मानकर उन को पूजे
शुद्धिकरण कर तन का गंगा
मैल मिटा मन का कब पाई।।

बुजुर्ग माता-पिता के लिए क्या कहें-
जिनकी दुआओं से हासिल है बच्चों को
शोहरत और मकाम,
उनको वृद्धाश्रम का उपहार न दीजिए
आइये न बनाये हम उनके चरणों में
 चारों धाम।


वृद्धाश्रम नहीं खोलूंगी बल्कि मैं किसी भी मां-बाप को उसके दो बेटे से अलग नहीं होने दुंगी।मैं ऐसा काम करूंगी कि लोग अपने मां बाप को वृद्धाश्रम भेजने के बारे में सोचें भी ना, मैं लोगों की नजरिया बदलने का काम करूंगी! लोगों को जागरूक करूंगी।लोगों के मन में अपने मां-बाप के लिए प्रेम का पौधा लगाऊंगी और खुद ही सींचुंगी कि हमेशा हरा भरा रहे और जिससे मैं अपने समाज को वृद्धाश्रम मुक्त बना सकूं।

बात स्थान विशेष की नहीं न ही विशेष धर्म से संबंधित यह समस्या है
वस्त्र जो प्रतीक हैं गर्वित संस्कृति और इतिहास के
उसकी आड़ में गोरखधंधा धर्म सम्मान में ह्रास के


वस्त्र - वस्त्र का अंतर है साहब । यह लोग भगवा पहन कर हम लोगों से भी गए बीते हैं। हम लोग कभी जबरदस्ती नहीं करते परंतु इन लोगों के द्वारा कई लोगों से बहुत बदतमीजी की जाती है। परंतु हम लोग ही तिरस्कार पाते हैं। नाम पता पूछने पर जौनपुर निवासी...।
और चलते-चलते एक शानदार अभिव्यक्ति-
खुरपी गाने को तत्पर है गीत सामाजिक बदलाव के लिए
जड़ों की गुड़ाई आवश्यक है पीढियों के घनी छाँव के लिए।


बोल - बोल कर, हँसुए का ब्याह कराते हो और मेरा गीत गाते हो। अरे कभी हमारा भी तो ब्याह करा दो और हँसुए का गीत गा दो। मगर ऐसा करोगे नहीं आपलोग। आप इंसान लोगों को तो बस एक ही लीक पर चलने की आदत है। अरे कभी लीक से हट कर भी सोचा करो आप लोग।"

-------

आज के लिए इतना ही
कल का विशेष अंक लेकर

आ रही हैं प्रिय विभा दी।