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शनिवार, 11 दिसंबर 2021

3229... सुधर हम भी नहीं जाते

        हाज़िर हूँ...! पुनः उपस्थिति दर्ज हो...

कम की आदत

जब फूट-फूट रोता हूँ तो कोई अपना 

एक हँसी का टुकड़ा उधार दे सके

और कहे लो हँस लो जी भर हम सूद न लेंगे

कि जब थक कर हाथ उठा सकने का भी मन न हो

तब भी कहें चलो यार! हम तुम्हे अपने पाँव देते हैं

सुधर हम भी नहीं जाते

अपनी जूतियों मैं अटक कर

बदहवास गिर पडे थे तुम

उस दिन से सोचता हूँ कि

मुझसे नज़र नहीं उलझाते

ये मैं नहीं कहता ये मेरे दोस्त कहते हैं

बबूल वन में चन्दन उगाने की ज़िद

इन दिनों इस देश में सबसे सस्ती इनसानों की जिन्दगी है। मौजूदा माहौल में इनसानों को अपनी जान का डर हिंसक जानवरों के बजाय मनुष्यों से होने लगा है। खून-खराबा इस देश की आम घटना हो गई है। किसी दिन हत्या, अपहरण आदि समाचार अखबारों में न दिखे तो लोग हैरत में पड़ जाते हैं। परवेज एक शेर में इन हैवानियों और समकालीन विडम्बनाओं को अंकित करते हैं:

वो तिफ्ल जिनको किया तुमने दाखिले मकतब

कोई भी लौट के उनमें से घर नहीं आया।

गोरा और बादल

कसकर बाँध लिया आँतों को केशरिया पगड़ी से

रंचक डिगा न वह प्रलयंकर सम्मुख मृत्यु खड़ी से

अब बादल तूफ़ान बन गया शक्ति बनी फौलादी

मानो खप्पर लेकर रण में लड़ती हो आजादी

आभार

कतरा-कतरा समंदर हो जायेगा ज्ञान नहीं था

मुट्ठी में कैद अम्बर हो जायेगा अनुमान नहीं था

आप सबके जज़्बे को नमन करता हूँ मित्रो

कार्यक्रम को इतना सफल बनाना आसान नहीं था

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पुनः भेंट होगी...
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2 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमन
    सदाबहार प्रस्तुति
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सभी रचनाएं बहुत अच्छी एवं मन को छूने वाली हैं।
    इतने महत्वपूर्ण लिंक्स उपलब्ध कराने के लिए हार्दिक आभार विभा रानी श्रीवास्तव जी🌷

    जवाब देंहटाएं

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