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मंगलवार, 26 अक्टूबर 2021

3193 ...मन कभी बूढ़ा नहीं होता तन बूढ़ा होता है

सादर अभिवादन..
दीपावली निकट है
कहीं भी जाओ तो
दीवाल को छूने से
डर सा लगे है, कहीं
दीवार मैली न हो जाए
या फिर अपनी ही
उंगलियाँ...
गीली न हो जाए
.....
रश्मि विभा त्रिपाठी जी की चार क्षणिकाएँ
रीडिंग लिस्ट में मौजूद पर ब्लॉग में नहीं




(1)
खिली जुन्हाई
शरद पूर्णिमा आई
विधु की अगुआई
करती विभा
सुधा- निधि जो पाई
झूमी
नाची, हर्षाई ।

(2)
शरत् काल
सुधा- रस- वर्षा
चन्द्र- कृपा से हर्षा
मन- मराल
मिटाए अवसाद
अलौकिक
'प्रसाद' ।

(3)
शरद पूर्णिमा
जाह्नवी- सी जुन्हाई,
चन्दा ने आ बिछाई
प्रभा- आसनी
माँ शाम्भवी के अंक
खेलते लाला स्कंद ।

(4)
नभ से चन्द्र
अमृत बरसाएँ
निरखें,
हरषाएँ
भव्य रास की
कान्हा लीला रचाएँ
मन्द- मन्द मुस्काएँ




मन तो हमेशा यही कहता है-
चुराके तितलियों से रंग,फूलों से गंध
नाचूं बगिया में भंवरों के संग|
चुराके बादलों से नमी, हवा से मस्ती,
नाचूं सागर पे लहरों के संग|




विष स्वयं पिये सारे नीलकण्ठ शैली में ।
पर हवा को बख़्शी है ताज़गी पहाड़ों ने ॥

बादलों के आवारा कारवाँ के गर्जन को ।
बारिशों सी बख़्शी है नग़मगी पहाड़ों ने ॥




कभी तो दीन के दुखड़े कभी दुनिया नहीं मिलती ।
कभी गायब है खेवय्या, कभी नय्या नहीं मिलती ॥

न कोई पेड़ मिलता है न कोई छत ही मिलती है ।
जहां हो धूप विधिना की वहीं छाया नहीं मिलती ॥


डॉ. सुशील जी जोशी

लिखा हुआ बोरों के हिसाब से
गोदामों में लाईन लगा तुल रहा है
कुछ पढ़ दिया जा रहा है कुछ
 इंतजार में है करवट बदल रहा है

कुछ लिखने को कहीं कुछ बकने को
कहीं कुछ ईनाम मिल रहा है
‘उलूक’ अच्छा है कम कर दिया बकना तूने
ग़ाँधी को लगी गोली को आज सलाम मिल रहा है ।
आज बस
कल मिलिएगा सखी पम्मी जी से
सादर


2 टिप्‍पणियां:

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