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गुरुवार, 17 जून 2021

3062 ..अपना तो अपना रहेगा ग़ैर फिर भी ग़ैर है

सादर नमस्कार
आज सुबह रवीन्द्र जी नहीं दिखे
सोचे चलिए
हम अपनी उपस्थिति दर्ज कर देते हैं
समय व्यर्थ न करते हुए
चलें रचनाएँ देखें....

सूखते दिन में
उम्मीद कई दफा
पसीने सी टपकती है।
फटी जेब में
रुमाल से बंधे
रुपयों में
सपने बुनता मजदूर
अस्त हो जाता है
सूरज के साथ।


हां मैं भी हूं एक हुनरवाली।
बुनती डलिया-सूप निराली।

इस विद्या में मुझे महारथ ।
मिला है जन्मजात विरासत।

बे-वजह कुछ अपने बंट गए मज़हबी इस दाव में,
ये हक़ीक़त जानकर भी ये सियासी बैर है ।

राज़-ए-उल्फ़त को बताना ये भी मेरा फ़र्ज़ था,
अपना तो अपना रहेगा ग़ैर फिर भी ग़ैर है ।


एकटुक,
अपलक निहारो कभी,
तुम्हारी आँखोंं में
स्वयं को पिघलाने का स्वप्न
मर्यादाओं की
लक्ष्मणरेखा का यथार्थ
लाँघकर भी
तुम्हारी दृष्टि में
व्यर्थ ही रहा।


"रक्तदान- महादान" कह-कह कर,
करना है अब से तो कोई दान नहीं।
कह कर - "रक्त साझा- सच्ची पूजा",
अब तो हमको, सच्ची पूजा करनी।
...
बस
सादर

10 टिप्‍पणियां:

  1. श्रमसाध्य प्रस्तुतीकरण हेतु साधुवाद
    उम्दा लिंक्स चयन

    जवाब देंहटाएं
  2. जी ! नमन संग आभार आपका .. मेरी बतकही/सोच को अपने मंच पर स्थान देने के लिए ...
    (एक मन के ऊहापोह वाला सवाल, शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी और ना ही आपकी प्रस्तुति को कम आँकना होगा,कि रवीन्द्र जी स्वस्थ हैं ना ! ...)

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, एकदम स्वस्थ हैं
      वे आज बुधवार के धोखे में थे
      आभार
      सादर

      हटाएं
  3. आभारी हूं आपका आदरणीय अग्रवाल जी। आपके द्वारा रचना का चयन मन को उत्साह देता है। सभी रचनाएं श्रेष्ठ हैं और सभी रचनाकारों को भी खूब बधाई...।

    जवाब देंहटाएं

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