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शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

1841...आज के दौर में भी प्रासंगिक ..प्रेमचंद

शुक्रवारीय अंक में
आप सभी का स्नेहिल
अभिवादन।
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आज का अंक सादर समर्पित

सबसे पहले पढ़िए
एक पत्र 

मेरे प्रिय लेखक प्रेमचंद जी,

यूँ तो आपसे मेरा प्रथम परिचय आपकी लिखी कहानी 
'बड़े घर की बेटी' से हुआ। हाँ हाँ जानती हूँ आप मुझे नहीं जानते हैं परंतु मैं आपको आपकी कृतियों के माध्यम से बहुत 
अच्छे से जानती हूँ और आज तक आपके विस्तृत विचारों के नभ की अनगिनत परतों को पढ़कर समझने का प्रयास करती रहती हूँ। खैर अपनी कहानी फिर किसी दिन कहूँगी आपसे आज आपको पत्र लिखने का उद्देश्य यह है कि आज आपका 140 वां जन्मदिन है। 
पता है हर छोटा बड़ा साहित्यिक मंच आपको दिल से 
याद कर रहा है पूरी श्रद्धा से भावांजलि अर्पित कर रहा है। 
आज के दौर में भी प्रासंगिक 
आपकी लिखी कहानियों के पात्रों के भावों से भींजे 
पाठक रह-रहकर वही पन्ने पलटते हैं जिसमें आपने 
आम आदमी को नायक गढ़ा था। आज के साहित्यकारों का विशाल समूह जब अपने दस्तावेजों को ऐतिहासिक फाइलों में जोड़ने के हर संभव अथक 
मेहनत कर रहा है तब आपकी क़लम बहुत याद रही है।
और हाँ आज आपसे आपकी एक शिकायत भी करनी है मुझे।

जीवनभर अभाव, बीमारी और अन्य मानसिक,शारीरिक 
और आर्थिक यंत्रणाएँ सहकर विचारों के अखंड तप से 
जो सच्चे मोती आपने प्राप्त किया उसे धरोहर के रूप में आने वाली पीढ़ियों को सौंप गये किंतु आपके जाने के बाद वो क़लम जिससे आपने अनमोल ख़ज़ाना संचित किया है वो जाने आपने कहाँ रख दी किसी को बताया भी नहीं उसका पता तभी तो किसी को भी नहीं मिली आजतक। किसी को तो दे जाना चाहिए था न!
क्या कोई योग्य उत्तराधिकारी न मिला आपको.. 
जिसे अपनी क़लम आप सौंप जाते?
या फिर आपकी संघर्षशील क़लम के पैनापन से लहुलूहान होने का भय रहा या  फिर क़लम का भार वहन करने में कोई हथेली सक्षम न थी?
जिस तरह आपकी कृतियों को संग्रहित करने का प्रयास करते रहे आपके प्रशंसक और अनुयायी उस तरह आपकी क़लम को जाने क्यों नहीं ढूँढकर सहेज पाये।
आपके जाने के बाद उस चमत्कारी क़लम की नकल की अनेक प्रतियाँ बनी किंतु आपकी क़लम की स्याही से निकली क्रांति,ओज और प्रेरणा की तरह फिर कभी न मिल पायीं। जाने कहाँ ग़ुम हो गयी क़लम आपकी।
चलिए अब क़लम न सही आपकी बेशकीमती कृतियाँ तो हैं ही जो किसी भी लेखक की सच्ची मार्गदर्शक बन सकती है।
आपसे अनुरोध है कि आप अपने अनुयायियों और  
प्रशंसकों तक यह संदेश पहुँचा दीजिये न कृपया
ताकि हो सके तो आपका गुणगान करने के साथ -साथ
आपके लिखे संदेश का क्षणांश आत्मसात भी करें
और समाज के साधारण वर्ग की आवाज़ बनकर लेखक होने का धर्म सार्थक कर जायें।
आज बस इतना ही बाकी बातें फिर कभी लिखूँगी।

आपकी एक प्रशंसक

आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-
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बनी हुई बात को निभाना मुश्किल नहीं है 
बिगड़ी हुई बात को बनाना मुश्किल है।
( रंगभूमि)

क्रिया के पश्चात प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है।
(मानसरोवर-सवा सेर गेहूँ)

चंद प्रेमभरी शिकायतें

“प्रेम, चिंता, निराशा, हानि, यह सब मन को अवश्य दुखित करते हैं, पर यह हवा के हल्के झोकें हैं और भय प्रचंड आँधी है” 
(ग़रीब की हाय)
“नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर की मज़ार है. निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए” 
(नमक का दारोगा)

दहेज की प्रथा भारतीय समाज का कलंक है,  इस एक प्रथा के कारण स्त्री जाति को जितना अपमान और यातना झेलनी पड़ती है,  उसका आकलन करना भी असम्भव है. प्रेमचंद की अनेक कहानियों और उपन्यासों में स्त्रियां इस प्रथा के विरुद्ध खड़े होने का साहस जुटा पाई हैं. उनकी कहानी ‘कुसुम’ की नायिका कुसुम, बरसों तक अपने पति द्वारा अपने मायके वालों के शोषण का समर्थन करती है पर अन्त में उसकी आँखे खुल जाती हैं और वह अपने पति की माँगों को कठोरता पूर्वक ठुकरा देती है. अपनी माँ से वह कहती है-


बहरहाल, जब जीवन में पहली बार दंगों से रू-ब-रू होने की नौबत आई, तब तक मैं पटना से निकल चुका था और कुछ ऐसे मुस्लिम दोस्त भी जीवन में आ चुके थे जिनकी बदौलत बचपन में बनी वे छवियां करीब-करीब निष्प्रभावी हो गई थीं। मगर उन किस्सों का फायदा यह हुआ कि जब दंगों के दौरान मेरा साबका उबाल मारती सांप्रदायिक भावनाओं से पड़ा तो क्या हिंदू और क्या मुस्लिम, दोनों तरफ मुझे वैसे ही पात्र दिखने लगे जो नानी की सुनाई कहानियों में सिर्फ मुस्लिम किरदार के रूप में आते थे।


यहाँ कुछ उन कविताओं या काव्यांशों को प्रकाशित कर रहे हैं, जिन्हे कथा सम्राट प्रेम चंद की कहानियों में जगह मिली है। यह किसकी रचनाएं हैं यह जानने से कहीं महत्वपूर्ण है कि ये प्रेम चंद की पसंदीदा कविताएं हैं, पसंदीदा मैं इसीलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि ये कविताएं आज यहाँ जीवन पा रही हैं, कविताएं ऐसे भी जिंदा रहती हैं । यह सिलसिला चलता रहेगा, आज पढ़िये प्रेम चंद की पसंद में दो कविताएं-

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उम्मीद है आज का अंक आपको
अच्छा लगा होगा।

हम-क़दम का विषय

कल का अंक पढ़ना न भूलें
कल आ रही हैं
विशेष प्रस्तुति लेकर
विभा दी।

#श्वेता सिन्हा




गुरुवार, 30 जुलाई 2020

1840...सरहदों की रक्षा के लिए सामरिक ताक़त ज़रूरी है...

सादर अभिवादन।

गुरुवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।

ख़बर है 
कि बहुप्रतीक्षित 
पाँच लड़ाकू विमान रफ़ाल
फ़्रांस से भारत पहुँच गए हैं,
सरहदों की रक्षा के लिए 
सामरिक ताक़त ज़रूरी है 
मानव के हिंसक विचार
कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं। 
-रवीन्द्र 

आइए अब आपको आज पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-
असहाय पृथ्वी
निर्दयी आत्माओं से करती है रुदन
जरा ठहरो मेरे दर्द को साझा करो

मेरी फ़ोटो
चन्द्रकिरण सी बातें छलकी
मनुहार की थी फुहार  घनी
ओढ़ चुनरिया तारों वाली
पिय मिलन को चली है रजनी !


सियासत के इस खेल में, 
अपने और पराए ढूँढ पाओगे नहीं,
बस रह जाए साख सलामत अपनी, 
उतनी तो जानकारी रखो।

 
 अब मेघों ने रस बरसाया
अवगुंठन करती धरती
पहन चुनरिया धानी-धानी
खुशियाँ जीवन में भरती
तड़ित चंचला शोर मचाए
ज्यों मेघों से रार ठनी
तिनके-तरुवर-पुष्प-पात पर
दिखती कितनी ओस-कनी।।

 शत्रु मनुज के पांच ये,काम क्रोध अरु लोभ।
उलझे माया मोह जो,मन में रहे विक्षोभ।।
उचित समन्वय साधिए,जीवन का उत्थान
रेख बड़ी बारीक है,मूल तत्व को जान।।
 

 

जीवन की मेहरबानी है. वो न जाने कितने रास्तों से चलकर आता है. कई बार मृत्यु के रास्ते भी चलते हुए वो हम तक आता है. कभी भय के रास्ते भी. लेकिन वो आता है और यही सच है. दिक्कत सिर्फ इतनी है कि हम उसी के इंतजार में कलपते रहते हैं जो हमारे बेहद करीब है. यानी जीवन, यानी प्रेम. वो तो कहीं गया ही नहीं, और हम उसे तलाशते फिर रहे हैं. कारण हम जीवन को पहचानते नहीं. 


हम-क़दम 
का एक सौ उन्तीसवाँ विषय

आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले गुरूवार। 

रवीन्द्र सिंह यादव

बुधवार, 29 जुलाई 2020

1839..बोलना तक ख़ता हो गया...

।।भोर वंदन।।
“!!हरित फौवारों सरीखे धान
हाशिये-सी विंध्य-मालाएँ
नम्र कन्धों पर झुकीं तुम प्राण
सप्तवर्णी केश फैलाए
जोत का जल पोंछती-सी छाँह
धूप में रह-रहकर उभर आए
स्वप्न के चिथड़े नयन-तल आह
इस तरह क्यों पोंछते जाएँ ?”
डा०नामवर_सिंह
चलिए अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ पल निकाल कर नज़र डालें आज की लिंकों पर..✍

⛈️⛈️



आज एक चिट्ठी आई. उसे देखकर बहुत पहले सुना हुआ एक चुटकुला याद आया.
एक सेठ जी मर गये. उनके तीनों बेटे उनकी अन्तिम यात्रा पर विचार करने लगे. एक ने कहा ट्रक बुलवा लेते हैं. दूसरे ने कहा मंहगा पडेगा. ठेला बुलवा लें. तीसरा बोला वो भी क्यूँ खर्च करना. कंधे पर पूरा रास्ता करा देते हैं. थोड़ा समय ही तो ज्यादा लगेगा..

⛈️⛈️



बैठ राधिका यमुना तीरे 
श्याम विरह में रोई।
भूल गए मोहे सांवरिया
सोच रही है खोई।

पनघट सूने सूनी गलियाँ
चुप हाथों के कँगना।
मुरलीधर ब्रज छोड़ गए हैं
⛈️⛈️



  पदचाप तुम्हारी धीमीं सी
कानों में रस घोले
था इंतज़ार तुम्हारा ही
यह झूट नहीं है प्रभु मेरे |
जब भी चाहा तुम्हें बुलाना
अर्जी मेरी स्वीकारी तुम

⛈️⛈️


तुम्हारे भीतर जो भी शुभ है 
वह तुम हो 
और जो भी अनचाहा है 
मार्ग की धूल है 
सफर लंबा है 
चलते-चलते लग गए हैं 
कंटक  भी कुछ वस्त्रों पर 
 मटमैले से हो गए हैं 
⛈️⛈️


डॉ लोक सेतिया "तनहा"
पूछते सब ये क्या हो गया
बोलना तक खता हो गया।

आदमी बन सका जो नहीं
कह रहा मैं खुदा हो गया।
⛈️⛈️
हम-क़दम का एक सौ उन्तीसवाँ विषय
यहाँ देखिए
⛈️⛈️

।। इति शम ।।
धन्यवाद
पम्मी सिंह 'तृप्ति'..✍

मंगलवार, 28 जुलाई 2020

1838...उम्र तो बढ़ती रही पर दिल में बच्चा रह गया...

शीर्षक पंक्ति:दिगंबर नासवा जी
 
सादर अभिवादन।

मंगलवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।

       आज विश्व हेपेटाइटिस दिवस है।

         हेपेटाइटिस अर्थात लिवर में सूजन जो विभिन्न कारणों से उत्पन्न होती है जिसका मुख्य कारण हेपेटाइटिस वायरस हैं जिन्हें हेपेटाइटिस A,B,C,D,E नामों से जाना जाता है। इनमें हेपेटाइटिस B और C लगभग एक जैसे ख़तरनाक हैं किंतु हेपेटाइटिस B सर्वाधिक गंभीर एवं ख़तरनाक है। विश्वभर में 350 मिलियन संक्रामक रोग हेपेटाइटिस B के ज्ञात मरीज़ हैं। यह रोग इतना भयानक है जिसका अब तक कारगर इलाज उपलब्ध नहीं है। सुखद बात यह है कि हेपेटाइटिस से बचाव के लिए टीका (वैक्सीन ) उपलब्ध है जो एच आई वी के लिए अब तक उपलब्ध नहीं हो सका।

आइए अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-

कभी सड़को पे हंगामा.......उर्मिला सिंह 

  दौलत,ओढ़न दौलत,बिछावन दौलत जिन्दगी जिसकी,

वो क्या जाने भूखे पेट  सोने वालों की बेबसी क्या है!!

सीना ठोक कर जो देश भक्त होने का अभिमान करते

वही दुश्मनों का गुणगान करते,बताओ मजबूरी क्या है!!
 
खराब समय और फूटे कटोरे समय के थमाये सब को सब की सोच के हिसाब से रोना नहीं है कोई रो नहीं सकता है..... डॉ.सुशील कुमार जोशी
 
 
‘उलूक’
ठंड रख मान भी जा
तेरा कुछ नहीं हो सकता है

अपना कटोरा
सम्भाल के किसलिये रखता है
फूटा कटोरा है
चोरी हो नहीं सकता है 



 
मेघ घुमड़ते नाच रहे हैं
प्रवात पायल झनक रही
सरस धार से पानी बरसा
रिमझिम बूँदें छनक रही
ऐसे मधुरिम क्षण जीवन को
सुधा घूंट ही गयी पिला ।।


 मेरी फ़ोटो
छू के तुझको कुछ कहा तितली ने जिसके कान में 
इश्क़ में डूबा हुआ वाहिद वो पत्ता रह गया

आपको देखा अचानक बज उठी सीटी मेरी
उम्र तो बढ़ती रही पर दिल में बच्चा रह गया


 
आपातकाल (इमरजेंसी) 1974 का एक संस्मरण(लेख).... 

ब्रजेन्द्रनाथ मिश्रा
 

गया कैंटोनमेंट से सेना बुलाकर पूरा शहर उसी को सौंप दिया गया था। देखते ही गोली मारने का आदेश जारी था। लोग कह रहे थे कि ऐसा हाल तो 1947 के दंगों के समय भी नहीं था। मेरे ममेरे भाई गली - गली से होकर सिविल अस्पताल पहुंच गए। वहाँ उन्होंने लाशों के चेहरे पर से चादर हटाकर मेरी पहचान करनी चाही। मैं उनमें नहीं था। इसका मायने मेरी लाश उनमें थी, जिसे कहीं फेंक दिया गया हो।



हम-क़दम 
का अगला विषय है-
'पद-चिह्न' 

          इस विषय पर आप अपनी किसी भी विधा की रचना 
कॉन्टैक्ट फ़ॉर्म के ज़रिये
आगामी शनिवार शाम तक हमें भेज सकते हैं। 
चयनित रचनाएँ हम-क़दम के 129 वें अंक में आगामी सोमवार को प्रकाशित की जाएँगीं।
उदाहरणस्वरुप महान कवयित्री महादेवी वर्मा जी की कालजयी रचना-

मैं नीर भरी दुख की बदली 
महादेवी वर्मा

"मैं नीर भरी दुख की बदली !

स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झरिणी मचली !

मेरा पग-पग संगीत भरा,
श्वासों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली!

मैं क्षितिज भृकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन अंकुर बन निकली!

पथ को न मलिन करता आना,
पद चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में,
सुख की सिहरन बन अंत खिली!

विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!"

-महादेवी वर्मा


साभार: हिंदी समय डॉट कॉम


  आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे आगामी गुरूवार। 
रवीन्द्र सिंह यादव