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मंगलवार, 16 जून 2020

1796...ज़िंदगी के अँधेरे-उजाले पल ऊबकर उलझ गए हैं...


सादर अभिवादन। 


मंगलवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।

ख़ुशबू गुलिस्ताँ को 
नाराज़ करती हुई  
स्याह सायों में समा गई,
ज़िंदगी के अँधेरे-उजाले पल 
ऊबकर उलझ गए हैं 
दिल की आज़ाद धड़कन
अलक्षित वन में भटक गई।
-रवीन्द्र 

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-  
  
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लगता है
भ्रम वश या द्वेष वश 
किसी ने यों ही धकिया दिया होऊँगा 
या कभी खा गया होऊँगा ठोकर
बेखुदी में और गिर गया होऊँगा। 

 
 बस खुद को ही खोद खोद कर 
खुद को यूँ गंवाते थे। 
मृग मरीचिका की माया में 
कोई अपना नहीं बनाते थे।

 
मुझे अंदर कुछ चोक होता सा लगा. खिड़की से बाहर देखा धूप बहुत थी...मुझे तुम याद आए. तुम्हारी किताब खोलकर बैठ गई पर यहाँ तो भीतर से भी ज़्यादा दर्द है. सच मुझे बहुत दर्द हो रहा था. पूरी रात मौसम के बदलते तेवर से लड़ती रही. आज 24 घण्टे बाद बहुत हिम्मत जुटाकर तुमसे आग्रह किया और तुमने उन्मुक्त होकर रंग बिखेर दिए शब्दों के. आज बहुत दिनों के बाद मेरा कमरा रोशनी से भर गया.

तुम्हें पता है एन्टी डिप्रेशन हो तुम मेरे.



इस बदलते दौर में 
जीवन विकटता से भरा 
हर पल गुजरते दिन के संग 
एक नई उलझन रही 
हर रोज एक नया सबक 
हमको है ये  सिखला रही 


 
तनाव के उन क्षणों में मजबूत लोग भी आत्महत्या कर लेते हैं..
वो लोग जिनके पास सब कुछ है 
शान ... शौकत ... रुतबा ... पैसा .. इज्जत 
इनमें से कुछ भी उन्हें नहीं रोक पाता ..  
 तो फिर क्या कमी रह जाती है .... ???
 कमी रह जाती है उस ऊँचाई पर 
एक अदद दोस्त की .....

कमी होती है उस मुकाम पर
एक अदद राजदार की .....
***** 
हम-क़दम के अगले अंक का विषय-
'प्रतीक्षा'


 इस विषय पर सृजित आप अपनी रचना आगामी शनिवार (20  जून 2020) तक कॉन्टैक्ट फ़ॉर्म के माध्यम से हमें भेजिएगा। 
चयनित रचनाओं को आगामी सोमवारीय प्रस्तुति (22 जून 2020) में प्रकाशित किया जाएगा। 

उदाहरणस्वरूप  कविवर  
डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी की कविता-

प्रतीक्षा
हरिवंश राय बच्चन

"मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय तुम आते तब क्या होता?
मौन रात इस भाँति कि जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर,
अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?
तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले,
पर ऐसे ही वक्त प्राण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूम-घूम फिर-फिर से, असमंजस के क्षण गिनती हैं,
मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित, यदि कर जाते तब क्या होता?
उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन, रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महफिल ने अपनी आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते तुम दिख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हूँ, पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुल कर, आँसू के कण-सी झर जाती,
नमक डली-सा गल अपनापन, सागर में घुलमिल-सा जाता,
अपनी बाँहों में भर कर प्रिय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?"

-डॉ. हरिवंश राय बच्चन 

साभार : हिंदी समय 

आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे आगामी गुरूवार को एक नई प्रस्तुति के साथ। 

रवीन्द्र सिंह यादव 


9 टिप्‍पणियां:

  1. पता नहीं क्यों, मेरी दीवाल पर 'पाँच लिंकों की यह इबारत' नहीं खुल रही है! सुंदर प्रस्तुति का आभार!!!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. लिंक सुधारा जा चुका है
      शायद भाई रवीन्द्र की नजर में नहीे आया होगा
      सादर नमन

      हटाएं
  2. बेहतरीन व पठनीय
    प्रस्तुति
    विषय
    रचनाएँ
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. नमस्कार आदरणीय,

    मेरी रचना को आज के अंक में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार और सचमुच आज की चर्चा काफी सार्थकता लिए हुए है।

    सधन्यवाद ... 💐💐

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।हार्दिक धन्यवाद आपका।

    जवाब देंहटाएं

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