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शनिवार, 16 फ़रवरी 2019

1310.. सूरज उगेगा पर्दे के पीछे


दुःख आक्रोश
नापने का पैमाना
मत तय करो
स्तब्धता मौन
वाचालता में क्या भाव गौण...
संबंधित इमेज
बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत वहशत की है धूप 'ज़िया'
चारों जानिब वीरानी है दिल का इक वीराना क्या @अहमद ज़िया

सूरज उगेगा पर्दे के पीछे
तितलियाँ नहीं कर पाएंगी
                                                         फूलों से मासूम  मुलाक़ात,
                                                          इस फुलवारी में  प्रवेश वर्जित है /
                                                          सूरज उगेगा ज़रूर ,
                                                          लेकिन परदे के पीछे ,
                                                          क्योंकि रौशनी के नाम है वारंट और
                                                          उसे ढूंढ रहे हैं -अँधेरे के सिपाही /

वीरान पर कविता के लिए इमेज परिणाम
सबसे खतरनाक होता है
पाश की कलम से डरे लोगों ने उनकी जान ले ली.
उनकी कविताएं बेहद तल्ख और सार्थक राजनीतिक वक्तव्य हैं.
अपनी कविताओं में वह लोहा खाने और बीवी को बहन कहने की बात करते हैं,
और पेड़ों की लंबाई से वक्त मापने वाले लोगों को देश मानते हैं.

जीवन की राह में
जीवन की राह में, धूप व छाँव में
पवन सा हम लहर, पँछी के जैसा चहक
थाम के हाथों को, मिला कर हर-कदम
पार करने की डगर, खायी मिलके ये कसम।
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मोहभंग
“एक ही संविधान के नीचे
              भूख से रिरियाती हथेली का नाम
              ‘दया’ है
              और भूख में
              तनी हुई मुट्ठी का नाम
              नक्सलबाड़ी है |”
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रिश्तों का कारवां
मतलब के धागों से
वो टूट जाती है क्योंकि
डोर होती है बुनी उसी
विश्वास के धागो से
जो बोझ उठा लेता है,
उन सभी रिश्तों की
उमीदों का !
><
फिर मिलेंगे..
हम-क़दम के अट्ठावनवें अंक का 
विषय है "पलाश"
"पलाश" शीर्षक से 
कविवर पंडित नरेन्द्र शर्मा जी की कविता उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत है -  

आया था हरे भरे वन में पतझर, पर वह भी बीत चला।
कोंपलें लगीं, जो लगीं नित्य बढ़नें, बढ़ती ज्यों चन्द्रकला॥

चम्पई चाँदनी भी बीती, अनुराग-भरी ऊषा आई।
जब हरित-पीत पल्लव वन में लौ-सी पलाश-लाली छाई॥

पतझर की सूखी शाखों में लग गयी आग, शोले लहके।
चिनगी सी कलियाँ खिली और हर फुनगी लाल फूल दहके॥

सूखी थीं नसें, बहा उनमें फिर बूँद-बूँद कर नया खून।
भर गया उजाला ड़ालों में खिल उठे नये जीवन-प्रसून॥

अब हुई सुबह, चमकी कलगी, दमके मखमली लाल शोले।
फूले टेसू-बस इतना ही समझे पर देहाती भोले॥

लो, डाल डाल से उठी लपट! लो डाल डाल फूले पलाश। 
यह है बसंत की आग, लगा दे आग, जिसे छू ले पलाश॥
साभार- कविता कोश
अंतिम तिथिः 16 फरवरी 2019
प्रकाशन तिथिः 18 फरवरी 2019


6 टिप्‍पणियां:

  1. कल से ही तमाम श्रद्धांजलि सभाएँ और पुतला दहन हो रहा है। राजनीति करने वाले दो मिनट का मौन भी ठीक से कहाँ रह पाते है।
    रचनाकारों ने आँसुओं में लेखनी को डूबो रखा है,
    पर आवश्यकता है प्रतिकार की-
    चिंतन- मंथन बहुत हुआ, अब एक्शन मोड में आएँँ श्रीमान।
    छद्म युद्ध उनकों भाता, तो हम है शिवा जी के संतान।
    सुंदर संकलन,सभी को प्रणाम।

    जवाब देंहटाएं
  2. शानदार प्रस्तुति सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई

    जवाब देंहटाएं
  3. सादर नमन दीदी
    एक और बेहतरीन प्रस्तुति
    आभार..
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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