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रविवार, 16 सितंबर 2018

1157....कितनी छलक गयी, कितनी जमा हुई, बूँदें बारिश की


तीज-त्योहारों की शुरुआत हो गई है
श्री गणेश जी राजित हो गए हैं
योमे-आसुरा (मोहर्रम) शुक्रवार को है
एक बार फिर दो उत्सवों का साथ है...
उल्हास भी मातम भी...
शुभकामनाएँ और अफ़सोस साथ-साथ...

चलिए चलें आज चयनित रचनाओं की ओर...



मेरा अस्तित्व....अभिलाषा अभि
'तुम गेम खेल रहे हो और तुम्हारी वजह से मैं टॉर्चर हो रही हूं। सौ बार बोला है वक़्त देखकर काम किया करो।' बेटे के हाथ से मोबाइल लेकर मैं सुकून की तलाश में फेसबुक लॉग इन करके किनारे बैठ गई।
यही कोई 10 मिनट के बाद बॉस की प्रोफाइल पर एक अपडेट आती है, '.... निःसन्देह एक कर्मठ एम्प्लॉई थीं पर ऑफिस से बेटे की बीमारी का बहाना करके छुट्टी लेकर फेसबुक पर सक्रिय पाई जाती हैं। मैं नहीं चाहता कि इनकी इस हरकत का असर फर्म के अन्य एम्प्लॉई पर पड़े। इनकी सेवाएं तत्काल प्रभाव से समाप्त की जा रही हैं।'



कहीं कच्चे, कहीं पक्के,
कहीं समतल, कहीं गढ्ढों-भरे,
कहीं सीधे, कहीं घुमावदार,
अकसर पहुँच ही जाते हैं


युद्ध कोई भी हो,उसका कोई परिणाम नहीं होता पार्थ, मान लेना है, वह जीत गया,वह हार गया । क्या तुम्हें अपनी जीत पर भरोसा था ? क्या तुम जीतकर भी जीत सके ? कर्ण की हार का दोषी दुनिया मुझे ठहराती है, फिर इस तरह मैं ही हारा ! 

एक छोटी सी लम्बी कहानी
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"अरे का बताएँ भाई अब ई डर सताय रहा कि कइसे हम इत्ता बड़ा जिम्मेवारी संभालेंगे?"
रमेसर जो अब तक चुप था , बोल पड़ा।
"सब हो जाएगा काका चिन्ता न करो, हम हरपल तुम्हारे साथ हैं, अब गाँव को सही दिशा में लाना है और ई सब गाँव वाले मिल के करेंगे।" हरीश ने कहा। उत्साह उसके अंग-अंग से छलक रहा था आखिर उसने नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया था।
"अब बस एक चीज पूरे गाँव वालों को समझाना है काका...
ऊ का?
"चौधरी अब गाँव वालों को आपस में भड़काएगा, लड़वाएगा, कभी जाति के नाम पर कभी जमीन के नाम पर....लेकिन उसे बस अब सिर्फ एक ही तरीके से हरा सकते हैं...आपसी एकता से, चाहे कोई भी किसी के खिलाफ कुछ भी कहके हम सबको आपस में भड़काए पर हमें अपनी समझदारी नहीं छोड़नी।" हरीश ने सबको समझाते हुए कहा।
इतने बरस भोगे हैं बेटा, अब मुक्ति मिली है तो अब ऊकी ना चलने देंगे। भगवती प्रसाद ने गमछा कंधे पर डालते हुए कहा और सभी खुशी के भाव चेहरों पर सजाए अपने-अपने घरों को चल दिए। आज उनकी आँखों में सुनहरे सपनों ने पंख फैलाना शुरू कर दिया और उधर पश्चिम में दूर पेड़ों के झुरमुटों के पीछे दिनकर ने अपना दामन समेटना शुरू कर दिया है, आज डूबते सूरज की सिंदूरी लाली गाँव वालों की आँखों में सुनहरा सपना बनकर चमकने लगी है।



ना कहूँगी फ़िर कभी
कि तुम बढ़ाओ हाथ अपना,
मैं नयन तुमको बसाकर
देखती हूँ एक सपना !!!
संग मेरे तुम ना आओ,
रूठ जाऊँ, मत मनाओ,
पर तुम्हारी राह में मैं
फूल बनकर तो खिलूँगी !
फ़िर वहीं तुमसे मिलूँगी !!!


डॉ. सुशील जी जोशी
कहाँ 
जरूरी है 
सब कुछ 
वही कहना 
जो दिखे 
बाहर बाजार 
में बिकता हुआ 
रोज का रोज 
‘उलूक’ 
किसी दिन 
आँखें बन्द 
कर के
झाँक भी
लिया कर
आज बस...
फिर मिलते हैं
यशोदा




10 टिप्‍पणियां:

  1. सस्नेहाशीष व शुभकामनाओं के संग शुभ दिवस छोटी बहना
    आपके प्रस्तुतीकरण में तो खो जाती हूँ मैं

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  2. सुंदर प्रस्तुति शानदार रचनाएं

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर रविवारीय हलचल प्रस्तुति में 'उलूक' की बारिश की बूँदों को भी स्थान देने के लिये आभार यशोदा जी।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर लिंकों का संकलन, सभी रचनाकारों को बधाई।
    आभार।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर लिंक संयोजन, सभी रचनाकारों को बधाई..
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत ही सुन्दर लिंक संयोजन बेहतरीन रचनाएं बधाई

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुंदर प्रस्तुति। मेरी रचना को शामिल करने हेतु सादर आभार।

    जवाब देंहटाएं
  8. उम्दा लिंक संकलन ,लाजवाब प्रस्तुतिकरण...

    जवाब देंहटाएं
  9. सुंदर प्रस्तुति। सभी रचनाकारों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं

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