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मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

1005....फिर राष्ट्र के पैरों में यह बेड़ी क्यों?

4 फरवरी 1916 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का उद्घाटन हुआ। कार्यक्रम में वायसराय उपस्थित थे।
दरभंगा के राजा सर रामेश्वरसिंह भी अध्यक्षता में संपन्न समारोह में मालवीयजी के विशेष आग्रह पर बापू ने भाषण दिया। मंच पर मौजूद एनी बेसेंट को गांधीजी की बातें आपत्तिजनक महसूस हुईं और वे मंच से उतरकर चली गईं।

गांधीजी ने कहा कि इस पवित्र नगरी में महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने देशवासियों से एक विदेशी भाषा में बोलना शर्म की बात है। समारोह में जिन लोगों ने गांधी से पूर्व अंग्रेजी में अपना भाषण पेश किया था, उन लोगों को शायद ही यह अनुभव था कि विदेशी भाषा में बोलना शर्म सरीखा है।

 इस मौके पर आगे गांधीजी ने कहा कि हमारी भाषा पर हमारा ही प्रतिबंध है और इसलिए यदि आप मुझे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते, तब तो हमारा संसार से उठ जाना अच्छा है।

गांधी ने वहां मौजूद लोगों से सवाल किया कि क्या कोई स्वप्न में भी यह सोच सकता है‍ कि अंग्रेजी भविष्य में किसी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।

श्रोताओं ने कहा- नहीं, नहीं। यह उत्तर सुनकर गांधीजी ने पूछा, फिर राष्ट्र के पैरों में यह बेड़ी क्यों? 
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है।
साभार - देवपुत्र

आदरणीया श्रीमति अजित गुप्‍ता

आज बालिका से अधिक बालकों पर ध्यान देने की जरूरत है।
पत्रकारों के लिये  भी सनसनी बनाने पर रोक लगनी चाहिये, झूठी खबरे तो यौन हिंसा से भी खतरनाक है और इन पर कठोर दण्ड का प्रावधान होना चाहिये। कोई  भी किसी के लिये झूठ प्रचारित करता है तो केवल माफी मांग लेने के न्याय समाप्त नहीं होना चाहिये अपितु यह यौन-हिंसा के समान ही कठोर दण्ड का अधिकारी होना चाहिये। आज शोर मचाने का सिलसिला बनता जा रहा है, अवधि पार होने पर  पता लगता है कि शोर जिस बात पर था, मामला कुछ और था। लेकिन तब तक समाज में वैर स्थापित हो चुका होता है।

चारों तरफ से तलवारे खिंच चुकी होती हैं, गाली-गलौच का वातावरण बन चुका होता है फिर चुप्पी होने से भी कुछ नहीं होता है। नफरत की दीवार ऊंची हो गयी होती है।
इसलिये जो खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं, उन्हें ऐसे शोर से बचना चाहिये। कुछ भी बोलने से बचने चाहिये और कुछ भी लिखने से बचना चाहिये। अपनी वफादारी सिद्ध करने के लिये जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये। आपकी वफादारी किसी एक दल के प्रति ना होकर समाज और देश के प्रति होनी चाहिये और सबसे अधिक मानवता के लिये होनी चाहिए।

आदरणीय    रंजना वर्मा


 दुःख घनेरी दहका है मन
जल रहा है कोमल तन
मां बहनों की इज्जत खतरे में है
लुटे हुए अस्मत पर
मैं कैसे ग़ढ लूं
एक नयी कविता
प्रिय मैं कैसे गाऊँ प्रेम कविता

आदरणीय दिगंबर नासवा
Profile photo
धूप मिली जो घर के आँगन में अकसर आ जाती थी
गाय मिली जो बासी रोटी छिलके सब खा जाती थी
वो कौवा जो छीन के रोटी हाथों से उड़ जाता था
फिर अतीत से उड़ कर मैना कोयल मेरे नाम मिली
यादों की खुशबू से महकी ...
कुछ अपनी जानी पहचानी अपनी ही आवाज़ मिली
ताल मिलाती मेज, तालियाँ, सपनों की परवाज़ मिली
टूटे शेर, अधूरी नज्में, आँखों में गुजरी रातें
फिर किताब के पीले पन्नों पर अटकी इक शाम मिली
यादों की खुशबू से महकी ...

आदरणीय डॉ. संजीव कुमार जैन

आज मीडिया ने जिस स्त्री की छवि बनाई है, वह समाज और देश की आम स्त्री की नहीं है, वह विशिष्ट वर्ग की विशिष्ट स्त्री की छवि है, जो उच्चवर्गीय स्त्री की प्रतिनिधित्व करती है।

‘‘पूरे के पूरे नए मीडिया संजाल ने इस वास्तविक स्त्री को, इसके जीवन और इसके संघर्षों को समाज की नजरों से, खुद स्त्री समुदाय की नजरों तक से ओझल कर दिया है।
यहाँ तक कि इसने आम मध्यवर्ग की पढ़ी लिखी स्त्री और गृहणी से लेकर आम कामकाजी औरतों तक से उसकी अपनी स्वाभाविक उम्मीदों, स्वप्नों, कल्पनाओं, फन्तासियों और बिम्बों को छीन लिया है और उसे नशे की खुराक की तरह नई कल्पनाओं और फन्तासियों और स्वप्नों की उड़ान दे दी है। मीडिया आज नए धर्मशास्त्र की भूमिका में है। जीवन के वास्तविक दुखों से फौरी तौर पर राहत और आराम देने वाली अफीम की पुरानी खुराक के साथ-साथ नए प्रकार का सांस्कृतिक नशा भी आज दूरदर्शन के चैनलों से लेकर प्रिंट मीडिया द्वारा मुहैया करा रहा है, मुक्ति का, मुक्त स्त्री का नया मिथक रचा जा रहा है, एक नया धर्मशास्त्र रचा जा रहा है।’’

आदरणीय  राहुल उपाध्याय

जवान मरते हैं
अधेड़ ऑफ़िसर बनते हैं
लेकिन वेतन कहाँ सब
समान लेते हैं

आदरणीय वन्दना गुप्ता


सुनो देवी
क्या संभव है तुम्हें भी तालों में बंद रखना?
फिर क्यों नहीं खोले तुमने
चंड मुंडों के दिमाग
क्यों नहीं दुर्गा रूप में अवतरित हो
किया अत्याचारियों का विनाश
सुनो देवी
क्या मान लें अब हम
तुम्हारा अस्तित्व भी महज कपोल कल्पना है
क्या जरूरी है
इंसानियत और मानवता से उठ जाये सबका विश्वास
और आस्था हो जाए पंगु
देखो देवी देखो
चहुँ ओर मच रहा कैसा हाहाकार

.......................................................

हम-क़दम 
सभी के लिए एक खुला मंच
आपका हम-क़दम  पन्द्रहवें क़दम की ओर
इस सप्ताह का विषय है
:::: क़दम   ::::
:::: उदाहरण ::::
बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,

पांवों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,

निज हाथों से हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा।

कदम मिलाकर चलना होगा।

-अटल बिहारी बाजपेयी


आप अपनी रचना शनिवार 21  अप्रैल 2018
शाम 5 बजे तक भेज सकते हैं। चुनी गयी श्रेष्ठ रचनाऐं
आगामी सोमवारीय अंक 23 अपैल 2018  को प्रकाशित की जाएगी ।
रचनाएँ ब्लॉग सम्पर्क प्रारूप द्वारा प्रेषित करें





धन्यवाद।






 



10 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात भाई कुलदीप जी
    सामयिक व अच्छी रचनाएँ
    आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. भूमिका की बातें सोचने पर मजबूर करती
    बहुत बढियां

    जवाब देंहटाएं
  3. भूमिका की बातें सोचने पर मजबूर करती
    बहुत बढियां

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही सुंंदर संकलन,सभी रचनाएँ लाजवाब । भूमिका ,सोच का विषय ....।

    जवाब देंहटाएं
  5. गांधी जी इस देश की आत्मा को जानते थे ...
    लाजवाब हलचल आज की ... आभार मेरी रचना को जगह देने के लिए ...

    जवाब देंहटाएं
  6. बेहतरीन प्रस्तुतिकरण उम्दा लिंक संकलन...

    जवाब देंहटाएं

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