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सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

941...हम क़दम का पाँचवां क़दम....पहाड़ी नदी

सादर नमस्कार
सदा
अविचल 
हिमाच्छादित 
पहाड़ों के सीने से 
निसृत,मौन चट्टानों के 
अंतर से प्रवाहित,कल-कल, 
छल-छल अपनी ही धुन में बहती 
मैं नदी हूँ। 
मेरी 
समृद्ध 
तटों पर 
अनेक मानवीय 
सभ्यताओं ने जन्म 
लिया है। देवी और माता 
स्वरूप मानकर पौराणिक काल 
से ही मुझे पूजा जाता रहा है।... 
परंतु बदलते समय के साथ-साथ आपके 
स्वार्थ के दोहन के फलस्वरूप आज मेरी स्थिति 
अत्यंत दयनीय है। मैं जीवनदायी,मोक्षदायनी नदी,अब 
नित्य तेजी से बढ़ती जनसंख्या, जीवन के ऊँचे होते मानकों,का 
औद्योगिकीकरण, शहरीकरण के फलस्वरूप बढ़ते कचरे ,मल से 
प्रदूषित होकर दिन-ब-दिन तिल-तिल मर रही हूँ। ऐसी हालत 
एक प्रदेश या राज्य में नहीं पूरे देश में ही मेरा अस्तित्व 
संकट में है। करोड़ों रुपयों की नीतियाँ बनाई जाती रही 
है मेरे संरक्षण को लेकर पर भी कोई फायदा न हुआ 
क्योंकि आप सब का सक्रिय सहयोग मुझे प्राप्त 
नहीं। कृपया, इतना अवश्य सोचियेगा 
कि मैं मर गयी तो आपके प्राणों 
पर भी संकट आ जायेगा।
जरा सोचिये न मेरी 
क्षीण होती साँसों 
को बचाने 
के लिए  क्या आप कुछ नहीं कर सकते हैं?? 
★★★

आइये अब चलते है आपके द्वारा रचे गये सृजनशीलता के संसार में।
आप सभी रचनाकारों की लेखनी से प्रवाहित नदी की कल-कल धारा अनेक साहित्य सुधियो़ के मन को शीतलता प्रदान करेगी।
◆◆◆◆◆◆
कृपया ध्यान दीजिएगा, रचनाएँ क्रमानुसार नहीं 
सुविधानुसार लगायी गयीं हैं।
◆◆◆◆◆◆
तो चलिए हम सभी रचनाओं की पावन सरिता में 
डुबकी लगाकर कविताओं का का आनंद लेते हैं।
◆◆◆◆◆◆
पहली रचना हम सब की ओर से
श्री महेश रौतेला की अप्रतिम रचना
यह भारत है
यह बिहू है
जो मुझे भाता है
सुबह सी अनुभूति दे
ब्रह्मपुत्र का आभास कराता है ।
ये झोड़े हैं
जो मुझे नचाते हैं
स्नेह सा स्पर्श दे
गंगा का ज्ञान दे जाते हैं ।
यह गरबा है
जो मुझ में सनसनाता है
अद्भुत लय दे
साबरमती तक ले आता है ।
यह भारत है
जो मुझे उज्जवल बनाता है
गंगा,यमुना,ब्रह्मपुत्र
नर्मदा,गोदावरी,कावेरी
सिन्धु,व्यास, रावी
सबका संगम मुझमें ढूढ़ंता है ।

◆◆◆◆◆◆

आदरणीया साधना दी
करने आई
उद्धार जगत का
कल्याणी नदी

बहती जाती 
अथक अहर्निश
युगों युगों से 
◆◆◆◆◆◆◆
आदरणीया अपर्णा जी
पहाड़ी साँझ का सूर्य भी बहा चला आता है,
मैदानी बाजारों में काम तलाशता है;
खोजता है जीवन की उम्मीद .....कि
ज़िंदगी बहती रहे नदी के साथ.
 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆
आदरणीया कुसुम दी
मेरी अनुगूंज विराट तक
चल के गिरती फिर चलती
न रुकती न हारती कभी
गिरना चलना मेरी शान
कभी उदण्ड हो किनारे तोडती
◆◆◆◆◆◆◆◆
आदरणीया शुभा दी
पर  हे मानव ..
तू क्यों है 
इतना स्वार्थ मगन 
करता क्यों नहीं मेरा जतन 
उँडेल कर जमाने का करकट
करता है क्यों मुझको मैला
◆◆◆◆◆◆◆
आदरणीया नीतू जी
खारे सागर से मिलकर खुद को मिटा लेगी वो
ऐसी बेखौफ दिवानी को कैसे समझाएँ

जनता है वो मगर फिर भी है खामोश अभी

आज सागर का जले दिल तो कैसे समझाएँ
◆◆◆◆◆◆◆◆
प्रिय सखी दिबू
तुम्हारे प्रवाह में
स्वयं के अस्तित्व को विलीन कर
सर्वस्व भूलकर बहती हुई
मैं पा लेती हूँ
जीवन नदी का अमृत
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
आदरणीय प्रियम् जी
बचपन सी भोली
कोयल की बोली
परियों की कहानी है।

बीच राह हर रोड़े
को चीरती,काटती
हुँकार भरती भवानी है।
◆◆◆◆◆◆◆
आदरणीया मीना जी
सुनो प्रियतम,
तुमसे मिलकर बाँध टूटा,
बहे झरझर अश्रू के निर्झर !
शायद इसीलिए खारे हुए तुम !
खारेपन की, आँसुओं की
सौगात भी सहेज ली ?
◆◆◆◆◆◆◆
इक क्षण की विलीनता ,  पुनः  मिले नवजीवन
वाष्पित होना सागर का,पर्वत तक जाना बदरी बन
बरसना पुनः पहाड़ों पर , बहना पुनः नदिया बन
अनमोल सम्पदा जीवन की,सृष्टि चक्र का साथ निभाती
जीवन जैसी ही नदिया निरन्तर बहती जाती.......
◆◆◆◆◆◆◆◆
आदरणीय वैभवी जी
जंगल तोड़ रहे
मौन...पहाड़ का
और नदी के
छल-छलाने की
आवाज भी
भंग करती है मौन
◆◆◆◆◆◆◆◆◆
आदरणीया सखी सुधासिंह जी
जीवनदायिनी है नदिया
कल कल - संगीत मधुर, सुनाती है नदिया.
चाल लिए सर्पिणी- सी , है बलखाती नदिया

ऊसर मरुओं को उर्वर बनाती है नदिया
तृष्णा को सबकी पल में मिटाती है नदिया
◆◆◆◆◆◆◆◆◆
आदरणीया सखी रेणुबाला जी

नदिया तुम नारी सी!!
नदिया तुम नारी सी -
निर्मल, अविकारी सी ,
 कहीं जन्मती कहीं मिल जाती -
नियति की मारी सी !!
◆◆◆◆◆◆◆◆◆
आप सभी के अमूल्य सहयोग से हमक़दम के 
आगे का सफ़र निर्बाध निरंतर जारी रहेगा ऐसी उम्मीद करते हैं।

आप सभी को आज का अंक कैसा लगा 
कृपया अपने विचार अवश्य प्रेषित करें।
आपकी प्रतिक्रियाएं हमारा मनोबल बढ़ाती हैं।

तीन मिनट और

14 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात...
    बहुत अच्छी प्रतिसाद
    उम्मीद से परे
    शानदार संयोजन
    शुभकामनाएँ
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह प्रिय श्वेता क्या खूब लिखा
    शानदार प्रस्तुति शब्दों को क्या खूब सजाया
    सभी चयनित रचनाकारों को बधाई

    जवाब देंहटाएं
  3. चित्र से सम्बन्धित विषय पर बहुत सुंदर काव्य छटा बिखेरी गई है सभी रचनाकारों द्वारा।
    एक मंच पर ही अलग अलग छटा बिखेरी गई है।
    श्वेता जी, आपकी श्रम को नमन..
    सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं।
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  4. एक से बढ़ कर एक प्रस्तुतियां पढ़ने को मिलीं आज की हलचल में ! मेरी रचना को भी स्थान देने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार श्वेता जी ! हमकदमों का यह कारवां निश्चित रूप से पूर्णत: सशक्त एवं स्तरीय होगा इसका पूरा विश्वास है ! आपकी यह पहल हर प्रकार से वन्दनीय है ! अभिनंदनीय है ! हार्दिक शुभकामनाएं !

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह!!प्रिय श्वेता ,क्या कमाल का संयोजन है!!भिन्न भिन्न नगीनों से बहुत खूबसूरत माला पिरोई है आपनें । मेरी रचना को इस माला का एक मोती बनाने हेतु ह्रदयतल से आभारी हूँ ।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत अच्छी पहल ।मेरी दीवानी को शामिल करने के लिए धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  7. नदी की चिन्तनीय स्थिति को भूमिका बनाकर पहाड़ी नदी को विभिन्न भावों से सजाकर एक खूबसूरत मंच की प्रस्तुति
    अतुलनीय एवं सराहनीय है...बहुत बहुत बधाई श्वेता जी !
    मेरी रचना को स्थान देने के लिए इपका हृदय से आभार एवं धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति.एक से बढ़कर एक रचनाएँ. सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं.
    मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद श्वेता जी.यह सिलसिला यूँ ही चलता रहे.

    जवाब देंहटाएं
  9. नदी एक ऐसा विषय है जिस पर अनगिनत रचनाओं की मौजूदगी के बावजूद भी, और लिखा जा सकता है, नया लिखा जा सकता है। जब भी नदी की या गंगा की बात आती है तो मेरे मन में भूपेन हजारिका जी का गाया यही गीत गूँजने लगता है -
    विस्तार है आपार, प्रजा दोनों पार
    करे हाहाकार निःशब्द सदा
    ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यूँ ?

    नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई
    निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यूँ ?
    इतिहास की पुकार, करे हुंकार
    ओ गंगा की धार, निर्बल जन को
    सबल-संग्रामी, समग्रोगामी
    बनाती नहीं हो क्यूँ ?

    विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार
    करे हाहाकार निःशब्द सदा
    ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यूँ ?

    अनपढ़ जन, अक्षरहिन
    अनगीन जन, खाद्यविहीन
    नेत्रविहीन दिक्षमौन हो क्यूँ ?

    इतिहास की पुकार, करे हुंकार
    ओ गंगा की धार, निर्बल जन को
    सबल-संग्रामी, समग्रोगामी
    बनाती नहीं हो क्यूँ ?
    आज की सुंदर प्रस्तुति हेतु प्रिय श्वेता जी को साधुवाद, धन्यवाद !
    अब हाल ये है कि सोमवार की सुबह तो हमकदम के अंक से ही शुरू होती है। इतनी उत्सुकता बनी रहती है कि देखें हमारे साथियों ने क्या लिखा है? कुछ रचनाएँ पहले पढ़ी हुई होती हैं फिर भी वापस पढ़ी जाती हैं। एक ही विषय पर विभिन्न लोगों की सोच में क्या समानता और क्या विविधता हो सकती है इसका निराला अनुभव यहाँ मिलता है....और पुनः एक नई जिज्ञासा कि मंगलवार के अंक में क्या नया विषय मिलेगा ?
    सचमुच, लेखन के लिए उत्प्रेरित करता आपका यह प्रयास अत्यंत प्रशंसनीय है। हृदयपूर्वक अनेक अनेक आभार!!!

    जवाब देंहटाएं
  10. श्वेता जी ,आपके प्रयास को सादर नमन है ।एक ही विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों को पढ़ना सुखद है । सुंदर रचना के लिए के लिए सभी रचनाकारों व संकलन के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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  11. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  12. प्रिय श्वेता जी -- पहाडी नदी पार संजोया आज का संकलन नितांत सार्थक और अभिनव है | आपके द्वारा लिखे सुंदर, सार्थक नदी के आत्म कथ्य सोचने पर विवश करते हैं | आखिर नदियों ने क्या नहीं दिया ? तटों पर असख्य वनस्पतियों का पोषण ,जलचर . नभचर ओर थलचर सबके लिए जल की अमृतधारा ? सबकुछ दिया नदियों ने | हिम पुत्रियाँ पिघलकर सदियों से मानवता के कल्याण के लिए प्रवाहित होती रही हैं | पर अतिक्रमण ने इन्हें आक्रान्त कर दिया है | दम तोडती और अस्तित्वहीन होती ये जलधाराएँ सृष्टि के लिए एक चिंता का विषय है | कहीं पढ़ा था -- सूखेगी नदियाँ तो तरसेंगी सदिया | नदी मात्र जल की धारा या स्त्रोत नहीं है -- इसके किनारों पर अनगिन मानव सभ्यता और संस्कृतियाँ पोषित हुई हैं | अनेक वन्य जीवों को इनसे जीवन मिला है साथ ही कोटि -- कोटि वनस्पति यां पुष्पित और पल्लवित हुई हैं | इन सबके बावजूद मानव की अति महत्व कांक्षा ने इन जीवन दायिनी धाराओं का अस्तित्व ही खंडित कर दिया है -- अतः नदी से हर इंसान को क्षमा मांगनी चाहिए और इसके वजूद की रक्षा का हर संभव प्रयास करना चाहिए | आपके शब्द प्रभावी और चिंतन लाजवाब हैं -- | आदरणीय भूपेन हजारिका जी के गंगा को समर्पित अमर गीत को लिख प्रिय मीना बहन ने आज के लिंकों में चार चाँद लगा दिए | और सभी रचनाकारों की लाजवाब प्रस्तुतियों ने संयोजन की शोभा को अलग ही रंगों में रंग दिया |



    नदिया ! तू रहना जल से भरी -
    प्रकृति को रखना हरी भरी |
    हरियाले तरुवर झूमे तेरे तट पर
    तेरी ममता की रहे छाया गहरी!!

    मछली को देना घर नदिया ,
    ना प्यासे रहे नभचर नदिया ;
    अन्नपूर्णा बन - खेतों को -
    अन्न - धन से देना भर नदिया !!

    !

    हो प्रवाह सदा अमर तेरे -
    बहना अविराम - न होना क्लांत ,
    कल्याणकारी सृजनहारी तुम
    रहना शांत -ना होना आक्रांत ,!!
    !
    पुण्य तट तू सरस , सलिल ,
    जन कल्याणी अमृतधार -निर्मल ;
    संस्कृतियों की पोषक तुम -
    तू ही सोमरस पावन गंगाजल !!!!!!!!
    आपको इस सुंदर संल्क्लं के लिए सस्नेह शुभकामना | और सभी सहभागियों को बहुत बधाई | मेरी रचना को शामिल करने के लिए सस्नेह आभार |

    जवाब देंहटाएं

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