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रविवार, 30 जुलाई 2017

744..दो कबाड़ी, एक ऊपर और एक नीचे

बाद नमस्कार के हाल ये है कि रायपुर में कड़क धूप पसरी हुई है.. और दिन का तापमान 33 डिग्री सेंटीग्रेड है बारिश का नामो-निशान दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा है...राजस्थान व गुजरात से इल्तिज़ा है कि सारा बारिश वे ही न हासिल करें कुछ से कुछ अधिक बारिश हमारे छत्तीसगढ़ के लिए रवाना कर दें.. हम यहां सूखी सुनामी का सामना कर रहे हैं...

अब चलें कि बकबक ही पढ़ते रहेंगे.......


एक बार उन्हें दशहरे के जुलूस में पंडित बनकर आरती की थाली लेकर चलते हुए भी देखा गया. पंडितजी की थाली में पैसे चढ़ाती और आशीर्वाद लेती महिलाओं को अक्कू मियां के ही मोहल्ले-बिरादरी के लड़के मियां को चिढ़ाने की गरज से सावधान कर रहे थे- चाची, त मुसई छ मुसई, अकबर अली ने उन लड़को को एक आंख से घूरकर कहा- चुब्बे हां, बता रिया हूँ भांची मत मार ....


हरी-भरी डालियां नील गगन छुअन को मचल उठी
पवन वेग गुंजित-कंपित वृक्षावली सिर उठाने लगी
घर-बाहर की किचकिच-पिटपिट किसके मन भायी?
पर बरसाती किचकिच भली लगे बरखा बहार आयी!


बाकी अभी है और फ़ज़ीहत कहाँ कहाँ...नवीन मणि त्रिपाठी
बदलेंगे लोग ,सोच बदल दीजिये जनाब ।
रक्खेंगे आप इतनी  अदावत  कहाँ कहाँ ।।

ईमान   बेचता   है   यहाँ   आम   आदमी ।
करते   रहेंगे  आप   हुकूमत  कहाँ  कहाँ ।।



फूल ख़त्म हो गए पर अब खेल में मज़ा आने लगा ! अब एक दूसरे को सम्मानित करने में नहीं अपमानित करने में ! एक दूसरे को चोट पहुँचाने में ! अब खेल शुरू हुआ कंकड़ों से पत्थरों से ! अब जीतना परम ध्येय था ! येन केन प्रकारेण सामने वाले को धूल चटाना भी मकसद बन गया ! एक कंकड़ फेंकता तो दूसरा ढेला ! 
एक ढेला फेंकता तो दूसरा पत्थर ! बिना यह देखे कि सामने वाले को कितनी चोट लगी !


छेड़ने राग
बूँदों से बहकाने
आया सावन

खिली कलियाँ
खुशबू हवाओं की
बताने लगी


याद आने लगी, कई भूली-बिसरी बातें,
वक्त बेवक्त सताती हैं, गुजरी सी कई लम्हातें,
ढलते हुए पलों में कटती नहीं हैं रातें,
ये दहलीज उम्र की,  दे गई है सैकड़ों सौगातें।

पंखुड़ियाँ ...24 कहानियो का संग्रह
आम के आम..गुठलियों के दाम
कहानी लेखकों के लिए सुनहरा मौका..

आई ब्लॉगर का संचालन करने वाली फर्म प्राची डिजिटल पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित होने जा रही है, आमंत्रित है मात्र 2000 से 3000 शब्दों की मौलिक व अप्रकाशित कहानी





एक दिन किसी उस पल 
बिना प्रयास 
'तुम' चली आओगी
मेरे पास 
और बाँध दोगी 
श्वास में एक गाँठ ।


बहुत कुछ 
हो रहा है 
बहुत कुछ 
अभी होना ही 
होना है 
‘उलूक’ तू 
रोता कलपता 
ही अच्छा लगता है 
तेरे हँसने के 
दिन आने में 
अभी महीना है ।

आज्ञा दें दिग्विजय को..
अब तो मिलते रहेंगे...
सादर



15 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात..
    वाह....
    पर सुनिए...
    बार-बार लेडी डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नही
    आपकी सारी रिपोर्टे नार्मल है
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. चुनिन्दा सारगर्भित एवं सार्थक सूत्रों से सुसज्जित आज की हलचल ! मेरी प्रस्तुति ' प्रतिकार' को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार दिग्विजय जी !

    जवाब देंहटाएं
  3. मेरी 700 वीं रचना "उम्र की दोपहरी" जो बेहद ही मेरे दिल के करीब है, को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार दिग्विजय जी ।।।।

    जवाब देंहटाएं
  4. शुभ प्रभात....
    सुंदर संकलन....आदरणीय सर बहुत कुछ प्रस्तुति....
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  5. शुभ प्रभात, आदरणीय
    दिग्विजय जी
    बढ़िया लिंक
    अच्छी प्रस्तुति ,आभार
    "एकलव्य"

    जवाब देंहटाएं
  6. बेहतरीन संकलन ,सुन्दर प्रस्तुति पांच लिंको का आनन्द

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति में मेरी पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  8. चुनिन्दा सुंदर एवं सार्थक सूत्रों से सजी लिंक
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  9. प्रकाशनाधीन कहानी संग्रह 'पंखुड़ियां' के विषय में यहां चर्चा करने के लिए आपका तहेदिल से शुक्रिया, हलचल विद 5 लिंक्स टीम।

    जवाब देंहटाएं
  10. रचनाएं खूबसूरत होती हैं, पर लिंक पर LINK जड़े होने से कोफ़्त भी होती है,
    बातों ही बातों में समझाएं कि इससे आमद कम ही होती है !

    जवाब देंहटाएं
  11. बहुत सुंदर लिंकों का संयोजन आदरणीय , मेरी रचना को मान देने के लिए हृदय से आभार आपका बहुत सारा।

    जवाब देंहटाएं
  12. आहा मैं आया तो था यहाँ तक शम्भू भाई का सूत्र पढ़ा भी था टिप्पणी अपने साथ लेकर शायद लौट गया हूँगा। कोई नहीं फिर आ गया :)

    जवाब देंहटाएं

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