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सोमवार, 17 अप्रैल 2017

640....बिना डोर की पतंग होता है सच हर कोई लपेटता है अपनी डोर अपने हिसाब से

सादर अभिवादन
मेरी डायरी के पन्ने से दो पंक्तियाँ....
झूझती रही बिखरती रही टूटती रही 
कुछ इसी तरह ये ज़िन्दगी निखरती रही !

प्रस्तुत है मेरी पसंद की ये रचनाएँ...

सही में औरतें 
बहुत ही बेवकूफ होती है 
हजारों ताने उल्हाने, 
मार पीट सहकर भी 
उम्मीद का दामन 
जो नहीं छोड़ पाती 
यह औरतें न जाने 
कितनी बार टूट -टूटकर 
बिखर जाने के बाद भी 
खुद को समेट जो लेती हैं

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तारे...श्वेता सिन्हा
भोर की किरणों में बिखर गये तारे
जाने किस झील में उतर गये तारे

रातभर मेरे दामन में चमकते रहे
आँख लगी कहीं निकल गये तारे



इसमें तुम्हारा क़सूर नहीं,
मेरी ही ग़लती थी 
कि मुझे ऐसा लगा,
पर जब लग ही गया,
तो मुसाफ़िर,
बस इतना कर देना 
कि जब मेरी गली से गुज़रो,
तो मेरी ओर देख लेना.

द्रौपदी का दर्द......साधना वैद
कब तक तुम उसे 
इसी तरह छलते रहोगे !
कभी प्यार जता के, 
कभी अधिकार जता के,
कभी कातर होकर याचना करके,


दही को एक कपड़े में बाँध कर 3-4 घंटे के लिए टांग दें 
जिससे कि उसका सारा पानी निकल जाए.
अब थोड़े से ब्रेड क्रम्बस निकाल कर बाकी सारी चीजें मिला लें.
अब इसे कबाब के आकार का बनाकर, ब्रेड क्रंब्स में लपेटें और गर्म तेल में शैलो फ्राई कर लें.

वक़्त... ऐसा लगता है कि दुनिया में बस यही एक चीज है जिसका चलते रहना निश्चित है... देखो न वक़्त के पहिये ने देखते ही देखते 5 साल का सफ़र तय भी कर लिया और हमें खबर तक नहीं हुयी... वैसे हम जिस जन्मों-जन्मों के सफ़र पर निकल चुके हैं, 


सच पर 
शक करना 
ठीक नहीं 
होता है 

‘उलूक’ 

कोई कुछ 
नहीं कर 
सकता है 
तेरी फटी 
हुई 
छलनी का 

सादर



8 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात
    बहुत सुंदर हलचल प्रस्तुति
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. सुन्दर प्रस्तुति। आभार यशोदा जी 'उलूक' के सूत्र को जगह देने के लिये।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर और उपयोगी लिंकों का चयन,मेरी रचना को मान देने के लिए आभार आपका यशोदा दी।

    जवाब देंहटाएं
  4. शुभप्रभात....
    सुंदर...
    बहुत अच्छी हलचल...

    जवाब देंहटाएं
  5. आज की हलचल में सभी पठनीय सूत्र ! मेरी रचना, 'द्रौपदी का दर्द', को भी सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से आभार यशोदा जी !

    जवाब देंहटाएं

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