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शनिवार, 10 सितंबर 2016

421 .... पवित्र मन रखो, पवित्र तन रखो



सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

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फिर किसी ने कहा
निबंध है
मैंने वो भी मान लिया....
फिर आवाज़ आई...
ये तुम्हारी कुंठा है.
मैंने नज़रें झुकाए हुए देखा
ज़मीन नहीं बोली थी
ऊपर आसमान नहीं बोला था
सामने खड़ा इंसान बोल रहा था
जिसने मुझसे मेरी ज़मीन और जंगल छीने थे

पवित्र मन रखो

पवित्र मन रखो, पवित्र तन रखो
पवित्रता मनुष्यता की शान है
जो मन वचन कर्म से पवित्र है
वो चरित्रवान ही यहाँ महान है ।।


बादल मामा.......



प्रेम के है रूप अनेक........
ईश्वर ने सृष्टि को दिए कई वरदान,
सर्वोपरी है जिसमें निरवधि प्रेम-
प्रबलता इतनी के जड में भी भर दे प्राण ,
नहीं दूजी कोई अनुभूती, इसके समान ॥
प्रेम के है रूप अनेक,हर रूप का है भाव महान।



क्यू
अपने अक्सर दूर क्यू हो जाते है
दुनिया की भीड़ मैं हम क्यू खो जाते है
अजनबी से शहर मैं हमे भेज देते
क्या हम अपनो से इतने पराए हो जाते हैं


कविताओं से प्यार रहा है....
मित्रों , मुझे हमेशा से ही कविताओं से प्यार रहा है और यदि नाटक कविता के रूप में हो तो मेरे मन को भा जाता है । यह नाटक मुझे बहुत ही अच्छा लगा । इस नाटक के कथानक में कहावतों को समझाने के लिए कविता के द्वारा अर्थ समझाया गया है । नाटककार ने सुन्दर शब्दों में और कविता के रूप में अर्थ को बड़े ही मोहक तरीके से समझाया है ।


फिर मिलेंगे .... तब तक के लिए
आखरी सलाम

विभा रानी श्रीवास्तव


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