---

रविवार, 31 जुलाई 2016

380...ज़िक्र खुद अपने गुनाहों पे किया करता हूँ

सुप्रभात
सादर प्रणाम 
जुलाई 2016 की अन्तिम
हलचल प्रस्तुति

रंग, रूप ,वेश,भाषा चाहे अनेक है ....2

बेला ,गुलाब जूही चम्पा चमेली 
प्यारे प्यारे फूल गूंथे माला मे एक है ।

आइए अब प्रस्तुत है आज की 
नई -पुरानी रचनाएँ 


प्रेमचंद (३१ जुलाई, १८८० - ८ अक्टूबर १९३६) 
हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव वाले प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया। आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में, जब हिन्दी में की तकनीकी सुविधाओं का अभाव था, उनका योगदान अतुलनीय है। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्‍य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्‍यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं।

अरे ! तुम आ गए
पर अब क्यों आये
अब इस सांसों के
थमने की घड़ी में
तुम्हारा आना भी
बड़ा ही बेसबब है
सच अब यूँ आना
भी न थाम सकेगा
मेरी टूटती सांसों की
थरथराती सी डोर


     ठूंठ
मुझे बहुत भाते हैं वे पेड़,
जिन पर पत्ते, फूल, फल
कुछ भी नहीं होते,
जो योगी की तरह
चुपचाप खड़े होते हैं -
मौसम का उत्पात झेलते.
इन्हें देखकर मुझे
दया नहीं आती,
क्योंकि मैं जानता हूँ
कि ये पेड़,
जो मृतप्राय लगते हैं,


बिखर गया अब तक बहुत कुछ इरादों की तरह,
टूट रहा है जीवन अब तो वादों की तरह।

सूना है आलम छाई है ख़ामोशी यहां,
होती है बातें भी मूक संवादों की तरह।

आती है लब पर अब भी मुसकान कभी कभी,
घटना ये भी होती है अपवादों की तरह।

यह दुनिया 
ज्यों अजायबघर 
अनोखे दृश्य 
अद्भुत संकलन 
विस्मयकारी 
देख होते हत्प्रभ ! 
अजब रीत 
इस दुनिया की है 
माटी की मूर्ति 
देवियाँ पूजनीय 
निरपराध 
बेटियाँ हैं जलती 

    

ज़िक्र खुद अपने गुनाहों पे किया करता हूँ

ज़िक्र खुद अपने गुनाहों पे किया करता हूँ,
कुछ सवालात सजाओं पे किया करता हूँ |

जब भी अल्फासों से लुट कर मैं गिरा हूँ इतना,
खुद मैं इज़हार खताओं पे किया करता हूँ |


लोग कहते हैं ये शीशे से भी नाज़ुक है दिल,
अब मैं हर बात दुआओं पे किया करता हूँ |


अब दिजिये 
आज्ञा
विरम सिंह सुरावा
सादर 

7 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात..
    बहुत ही सुन्दर
    मन के अच्छी लगी
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. पुनः
    विनम्र श्रद्धांजली
    मुंशी प्रेमचद जी को
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढ़िया प्रस्तुति ....मेरी ग़ज़ल इस प्रस्तुति में शामिल करने हेतु धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं

आभार। कृपया ब्लाग को फॉलो भी करें

आपकी टिप्पणियाँ एवं प्रतिक्रियाएँ हमारा उत्साह बढाती हैं और हमें बेहतर होने में मदद करती हैं !! आप से निवेदन है आप टिप्पणियों द्वारा दैनिक प्रस्तुति पर अपने विचार अवश्य व्यक्त करें।

टिप्पणीकारों से निवेदन

1. आज के प्रस्तुत अंक में पांचों रचनाएं आप को कैसी लगी? संबंधित ब्लॉगों पर टिप्पणी देकर भी रचनाकारों का मनोबल बढ़ाएं।
2. टिप्पणियां केवल प्रस्तुति पर या लिंक की गयी रचनाओं पर ही दें। सभ्य भाषा का प्रयोग करें . किसी की भावनाओं को आहत करने वाली भाषा का प्रयोग न करें।
३. प्रस्तुति पर अपनी वास्तविक राय प्रकट करें .
4. लिंक की गयी रचनाओं के विचार, रचनाकार के व्यक्तिगत विचार है, ये आवश्यक नहीं कि चर्चाकार, प्रबंधक या संचालक भी इस से सहमत हो।
प्रस्तुति पर आपकी अनुमोल समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक आभार।