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शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

सीधा-सादा सा है ये अंक चौंतीसवां

वो पल भर की नाराजगियाँ,
और मान भी जाना पलभर में,
अब खुद से भी रूठूँ तो,
कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं ।

सादर अभिवादन....

चलिए चलते हैं कुछ पढ़ने...


उसमें पत्थरों का असर आ गया

बोल दो चिराग से छुप कर रहे
तेज़ आंधियों का शहर आ गया


याद तुम्हारी आई 
इस दिल के कोने में बैठी 
प्रीति, हँसी-मुस्काई।


गढ़ा की मुख्य सड़क से अंदर के रास्ते पर 
सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों के साथ-साथ काले पत्थर 
अनेक रूपों में दिखाई देते हैं, 
जिसमे से एक विश्व प्रसिद्ध संतुलित शिला भी है


बात करता है वो, अहसान जता देता है

चूड़ियाँ चुभके हमेशा ही यही बतलायें
टूटता है जो कभी दर्द वो क्या देता है


उसकी आँखों की पगडंडियाँ 
दिल में नहीं जहन्नुम में खुलती थीं
लड़की के ऑफ शोल्डर ड्रेस की महीन किनारी में 
तलवार की धार सा तेज स्टील का धागा बुना हुआ था. 
उसका जिस्म महीन, धारदार जालियों में बंधा हुआ था. 
उसकी कमर पर हाथ रखते हुए हथेलियों में 
बारीक धारियां बनती गयीं थीं...

आज के इस अंक का समापन करता हूँ
आज्ञा दें
- दिग्विजय













3 टिप्‍पणियां:

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