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बुधवार, 18 दिसंबर 2019
1615... छद्म उत्पातों भरा जग..
8 टिप्पणियां:
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सियासत की कसौटी पर परखिये मत वफ़ादारी
जवाब देंहटाएंकिसी दिन इंतक़ामन मेरा गुस्सा बोल सकता है
बेहतरीन अश़आर..
सादर...
हमेशा की तरह लाजवाब प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंकिसी दिन इंतक़ामन मेरा गुस्सा बोल सकता है...
जवाब देंहटाएं.
गंभीर, चिंतनीय, समसामयिक घटनाक्रमों को देखते हुए, मुनव्वर साहब की यह पंक्ति मन में, एक बार तो जरूर गूंज उठेगी। 👏🏻👏🏻👏🏻
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सुयोग्य रचनाओं से संबद्ध इस अंक के लिए आपको सादर शुभकामनाएँ आदरणीया।
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छद्म उत्पातों भरा जग,
छल, छली से हार जाता।...
इस पंक्ति को लिखते वक्त, तथाकथित सभ्य समाज की असभ्य प्रवृत्तियों का अनायास ही स्मरण हो आया। मन में इस बात को लेकर ऊहापोह भी हुआ कि न जाने कितनों को तकलीफ़ भी हो सकती है इन शब्दों से। मगर इन सब बातों से कलम को क्या लेना देना? उसने अपना काम किया।
आज के इस अंक का शीर्षक “छद्म उत्पातों भरा जग..” देखकर बहुत अच्छा लग रहा है। हृदयतल से सादर अभिनंदन🙏🏻🙂🙏🏻।
वाह!!सुंदर संकलन ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन भूमिका के साथ पठनीय हलचल
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर भूमिका व सुन्दर संकलन। मेरी रचना को स्थान देने के लिए सादर आभार ।
जवाब देंहटाएंभावभीनी हलचल ...
जवाब देंहटाएंआभार मेरी रचना को जगह देने के लिए ...