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शनिवार, 9 मार्च 2019

1331... भंवर


 red गुलाब
चलो वुमन'स डे बीत गया,
दादी नानी डे भी तो होना चाहिए न
मदर'स डे , डॉटर'स डे जैसे आएगा..।
365 दिवस सामान्य और 5 दिवस स्त्रियों बच्चियों डे
कम से कम इस साल तीन सौ सत्तर दिवस होगा
दात्री कब याचक बन जाती है समझ से परे हो जाता है |

सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

डूबते हुए को अपनी कश्ती में बैठाकर देख लो
जाओगे उतार विरोध का स्वर उठाकर देख लो
लहर रहमत नहीं रही उलझा ले मन का भंवर
पखेरू समय अपने पंखो को सँवारता अपनी उड़ान मे व्यस्त था |
मौसम बदलते गए । सूरज की किरणें अलसुबह उठतीं,
धरती की देख भाल करतीं फिर शाम को उतरती देख,
विदा लेती मानो अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हुई हों ।
शाम चंद्रमा की रोशनी में धरती का हाथ रात्रि को सौंप
अपने कर्तव्य का निर्वाह करती । जीवन चक्र घूम रहा था ।
प्रकृति अपने नियम के दायरे में चल रही थी ।
सोचा था कर जायेंगे कुछ हटके,
पर सोचने और करने के,
फासलों के बीचों बीच,
उलझ के रह गए न जाने क्यों हम !
भागते भागते थक गए हैं,
परेशानियों से अब तो बाल भी पक गए हैं, जिन्दगी एक भंवर में,
जाने कहाँ खुद को छोड़ आये हैं हम !
कभी कभी यूँहीं अकेला,
निकल जाता हूँ मैं वहाँ,
जहाँ तनहाईयाँ हो,
जहाँ वक्त ठहरा हुआ सा लगे,
जहाँ भीड़ हो दरख्तों की,
खुशबुएँ हो फूल पत्तियों की,
नदियों के कल कल शोर में भी,
खामोशियों के भंवर खुले जहाँ
फ्रिज और दिवार के बीच दुबकी
रक्तरंजित रुमाल संग टूटी चूड़ियाँ बिखरी पड़ी है।
मंच पर बेमोल हँसी, कर्मठ, कर्त्तव्यपरायण,
सुंदरता आज़ादी की निखरी पड़ी हैं
सियासतदानों का बेमेल हिसाब के खिलाफ जाना
विस्फारित आँखें ओखरी पड़ी है,अतिप्रश्न
अस्तित्व क्या है?
डार्विन का सिद्धांत/
वेद- वेदान्त
जल जाते हैं मेरी मुस्कान पर क्योंकि,
मैंने कभी दर्द की नुमाइश नहीं की,
जिंदगी से जो मिला कबूल किया,
किसी चीज की फरमाइश नहीं की,
मुश्किल है समझ पाना मुझे क्योंकि,

 Hearts and गुलाब
><
फिर मिलेंगे...
अब बारी है हम-क़दम की
इकसठवाँ अंक
विषय ः
गरीबी
उदाहरण...
कितनी योजनाएँ बनती हैं
इतनी रगड़-पोंछ के बाद भी
क्यों गरीबों के आंकड़े बढ़ते है?
गहरी होती जाती है गरीबी रेखा
तकदीर शून्य ही गढ़ते हैं

रचनाकार श्वेता सिन्हा

अंतिम तिथि - 09 मार्च 2019
प्रकाशन तिथि - 11 मार्च 2019

4 टिप्‍पणियां:

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