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गुरुवार, 7 जून 2018

1056....सबने दूध चढ़ाया होगा तो मेरा एक लोटा जल ही सही.....

सादर अभिवादन। 
   कल विश्व पर्यावरण दिवस था। 
औपचारिक चर्चाओं के साथ ऐसे ही दिन गुज़र जाते हैं। 
लेकिन समाज में इस बिषय पर क्या मंथन हो रहा है इसकी झलक कुछ रचनाओं में अभिव्यक्त हुई है। 
पर्यावरण जैसा विशद बिषय केवल किसी सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। विश्व बिरादरी इसे लेकर चिंतित है लेकिन 2015 में हुए ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका के नये नेतृत्व ने अलग होने की घोषणा कर दी।  अब सुना है कि अमेरिका फिर इसमें सम्मिलित होना चाहता है।  पर्यावरण से जुड़ी ऐसी ख़बरें चिंताजनक हैं। पर्यावरण को लेकर धनी से लेकर ग़रीब देश के प्रत्येक नागरिक का दायित्व है कि वह अपना योगदान सुनिश्चित करे। बहरहाल पर्यावरण को लेकर शोर-शराबा बहुत है किंतु ज़मीन पर कार्य संतोषजनक नहीं हो रहे हैं।  
मेरे पिता जी एक कहानी सुनाया करते थे -
एक गाँव में सूखा पड़ा तो लोग बेहाल हो गये। 
इसी बीच एक महात्मा जी गाँव के शिव मंदिर में आकर रुके।  
गाँववालों ने अपनी व्यथा सुनाई और उबरने का उपाय पूछा। 
महात्मा जी बोले - "कल सूर्योदय से पूर्व आप सभी 
एक-एक लोटा दूध शिवलिंग पर चढ़ाएं, ईश्वर हमारी 
पुकार ज़रूर सुनेगा।" सुबह का उजाला होने से पूर्व ही 
लोग इस श्रद्धाजनक  कर्मकाण्ड में जुट गये। 
सवेरा होने पर अंतिम व्यक्ति को महात्मा जी ने जल चढ़ाते हुए देखा 
तो बोले - अरे ! यह क्या ? नीचे कुण्ड में भी जल ही एकत्र हुआ है, 
दूध की एक बूँद नहीं!  व्यक्ति दीनता से अपने दाँत दिखाते हुए बोला :
"महाराज मैंने सोचा, सबने  दूध चढ़ाया होगा तो 
मेरा एक लोटा जल ही सही।" लेकिन अँधेरे का 
लाभ उठाकर.......मिला क्या ? 

आइये अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं ओर ले चलें -      




क्या था सही ओर क्या गलत 
अब समझ पा रही हूं 
इसी दुःख का कर रही हूं निदान 
धरती से जन्मी थी 
फिर धरती में समा रही हूं |




शिकवा ग़मों का यूँ तो हर एक पल से है यहाँ
ख़ुश  भी  नहीं हुआ मगर ख़ुशी से आदमी

हासिल है रंजिशों का तबाही-ओ-तबाही
रहता है मगर फिर भी दुश्मनी से आदमी




कुदरत से खिलवाड दोस्तोंं
जीवन में मौत की बुलाहट
संतुलित रखो पर्यावरण को
वरना सुनो विनाश की मौन आहट




आओ हाथ से हाथ मिलाएं
धरा स्वर्ग है अपनी इसे वापस स्वर्ग ही बनाएं,
एक एक कर के भी अगर हम एक कदम बढ़ाएं,




स्मृतियों के आँगन में
जब भी ख्यालों की छुपन-छुपाई होती
कोई अपना पकड़ा जाता
लेते हुये हिचकी :)



मेरी फ़ोटो

चांद के दीदार का बहाना बना।
दोस्ती का कर्ज चुकाने आ गए ।।

सीढ़ियों पर भाग कर आते कदम ।
बीते दिन फिर से दिखाने आ गए ।।




पिता 🌲
वृक्ष की घनी छाँव सा 
दृढ़ता का आभास  !

पिता 🌲
अटल विश्वास सरीखा 
मन का शांत पड़ाव !

हम-क़दम के बाईसवें क़दम
का विषय...

आज बस यहीं तक..... 
मिलते हैं फिर अगले गुरूवार। 
कल आपके समक्ष होगी आदरणीया श्वेता सिन्हा जी की प्रस्तुति।  

11 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात भाई रवीन्द्र जी
    शिव जी को दुग्धाभिषेक
    हा हा हा....
    आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. कर्त्तव्य बोध कराती कहानी से सीख देती प्रस्तावना और सुन्दर संकलन । मेरी रचना को इस प्रस्तुति में स्थान देने के लिए हार्दिक आभार रविन्द्र सिंह जी ।

    जवाब देंहटाएं
  3. सार्थक परिदृश्य पर सटीक आंकलन करती उपयोगी प्रस्तुति
    सभी रचनाकारों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  4. हमारी पीढ़ी अब केवल सीख देने में लगी है... नजरें नई पीढ़ी की ओर टिकाए... वो बदलाव लायें हमारे अनुभवाभिव्यक्ति पर...
    देखते हैं क्या होता है पर्यावरण और फेल हुए बच्चों के आत्महत्या करने पर...
    बहुत बढियां आपका बनाया संकलन

    जवाब देंहटाएं
  5. रवीन्द्रजी, अप्रतिम आभार इस लज़ीज़ और लाज़बाब आमुख के लिए. संकलन कौशल की आपकी श्रेष्ठता तो शब्दों से भी ऊपर है ही!!!!

    जवाब देंहटाएं
  6. प्रस्तावना सुबोधनी के जैसी बोध कराती ...आपका संकलन क्षमता और शब्द चातुर्य अप्रतिम ..मेरी रचना को सम्मान दिया ..आभार

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  8. अति सुंदर संकलन रविन्द्र जी मेरी रचना को हलचल के एक कोना देने हेतु सादर आभार

    जवाब देंहटाएं
  9. आदरणीय रवींद्र जी आज की सार्थक भूमिका के लिए सादर आभार आपका। कहानी सचमुच जनमानस के व्यवहार को रेखांकित करती हुई है। सच है कि इस विषय में हमें ही जागरूक होना पड़ेगा, पर्यावरण की चेतावनी को अनसुना करने का परिणाम सबको भुगतना पड़ेगा।
    सारी रचनाएँ बेहद अच्छी लगी।
    मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपकी बहुत आभारी हूँ।

    जवाब देंहटाएं

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