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शुक्रवार, 30 जून 2017

714.....''बचपन जीवन की सबसे अनमोल अवस्था''

'बचपन जीवन की सबसे अनमोल अवस्था', किन्तु अनमोल शब्द किन बच्चो के सन्दर्भ में उनके जिन्होंने ने निर्धनता व समस्यायें नहीं देखीं अथवा वे जिनका जन्म ही निर्धनता की बलि चढ़ने हेतु हुआ है। बहुत से हमारे सम्माननीय रचनाकार ( संभवतः जिनमें मैं भी शामिल हूँ ) बचपन पर अतुलनीय लेखन कर रहे हैं ,निःसंदेह सराहनीय है, किन्तु एक पहलू को उजागर करना ,महिमामण्डन दूसरी तरफ निर्धनता व समस्याओं से घिरा रहने वाला बचपन ! मेरे विचार से एक सुख-सुविधा से परिपूर्ण बचपन ,अपने स्वप्न से प्रतीत होने वाले बचपन में ही रहना चाहता है क्योंकि उसे सभी मूलभूत वस्तुएं प्राप्त हैं किंतु एक निर्धन व अनेक समस्याओं से घिरा बचपन शीघ्र ही बड़ा होना चाहता है। साहित्य जगत की बात करें ,हमारे सम्माननीय लेखकगण वर्तमान में बचपन का जो दृश्य अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं ,ये वही सुख-सुविधाओं से पूर्ण ,आर्थिक समस्याओं से मुक्त बचपन की गाथा है जो आज के विमर्श का मुद्दा हो सकता है किन्तु, इस लोकतांत्रिक राष्ट्र में प्रत्येक व्यक्ति के विचार स्वतंत्र हैं। 
अतः ये मेरे स्वयं के विचार हैं। 

विचारों की दहलीज़ पर 
"पाँच लिंकों का आनंद" 
में 
आपका स्वागत एवं अभिनंदन।  


सत्य ही है प्रकृति सदैव ही मानव को अपने स्रोतों से आह्लादित करती है किन्तु हम निष्ठुर मनुष्य स्वार्थ की सीमा पार करते हुए उसके अवयव से खिलवाड़ कर रहें हैं ,प्रकृति के उत्तम चरित्र से साक्षात्कार कराती 
आदरणीय ,डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी की रचना  


धरा में जो दरारें थी, मिटी बारिश की बून्दों से,
किसानों के मुखौटो पर, खुशी चमका गये बादल।



कहते हैं लिखने से अत्यधिक कठिन एक बेहतर पाठक बनना है किन्तु हमारी आदरणीय "यशोदा दीदी" बेहतर पाठक होने के साथ-साथ एक श्रेष्ठ संकलनकर्ता भी हैं, जिनकी संकलित एक रचना जो  सुरेन्द्र कुमार 'अभिन्न' द्वारा रचित है  


कठोरता का हल चला कर,
तुमने ये कैसा बीज बो दिया? 
क्या उगाना चाहते हो 
मुझमें तुम,


यह तो सत्य है दुनिया गोल है वैज्ञानिक तथ्यों से स्पष्ट कर चुके हैं परन्तु आज हमारे 
आदरणीय,"राहुल मिश्रा" जी अपनी रचना से सिद्ध कर रहे हैं 


कुछ ग़ुम हुए 
त्यौहार 
अपनी अलग 
कहानियां सुनाते 

कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.
सूझ-बूझ.....विभा दीदी
शाम के समय, विभा अपने घर के बाहर टहल रही थी तो पड़ोसन का कुत्ता उसकी साड़ी को अपने मुँह में दबाये बार-बार कहीं चलने का इशारा कर रहा था... वर्षों से विभा इस कुत्ते से चिढ़ती आई थी क्यूंकि उसे कुत्ता पसंद नहीं था और हमेशा उसके दरवाजे पर मिलता उसे खुद के घर आने-जाने में परेशानी होती... अपार्टमेंट का घर सबके दरवाजे सटे-सटे... जब विभा कुत्ते के पीछे-पीछे तो देखी रोमा बेहोश पड़ी थी इसलिए कुत्ता विभा को खींच कर वहाँ ले आया था... डॉक्टर को आने के लिए फोन कर, पानी का छींटा डाल रीमा को होश में लाने की कोशिश करती विभा को अतीत की बातें याद आने लगी





चिरपरिचित ,समाज की बुराईयों पर व्यंग के शब्द भेदी बाणों की वर्षा करते हमारे 
आदरणीय,''सुशील कुमार जोशी'' जी 
इनकी रचनाओं का वर्णन 'सूर्य को दीया' दिखाने जैसा प्रतीत होता है ,जबकि सारगर्भित रचनायें स्वयं ही बोलतीं हों अपने रहस्य !
कई बरसों तक 
सोये हुऐ पन्नों पर 
नींद लिखते रहने से 
 शब्दों में उकेरे हुऐ 
सपने उभर कर 
नहीं आ जाते हैं 

अंत में आदरणीय,  "शालिनी रस्तोगी" जी की रचना 


ये जो तुम ,अहसा दिखा के कर रहे हो 
प्यार तो नहीं ,तुम्हारी ख़ुदगर्जियाँ हैं 


आज्ञा दीजिए ''मेरी भावनाओं'' के साथ

तूँ बोले ! सौग़ात नहीं 
स्वप्नों में जीना ज्ञात नहीं 
महिमा मंडित उनका तूं करता 
जिनका बचपन है मुक्त क्लेशों से 
भाग्य के मारे !
दिवास्वप्न रोटी के सहारे 
क़लम नहीं हैं हाथ हमारे 
बस इच्छा है काम की प्यारे 
तूँ बोले ! सौग़ात नहीं 
         स्वप्नों में जीना ज्ञात नहीं .....   


गुरुवार, 29 जून 2017

713....क़ैद करोगे अंधकार में

सादर अभिवादन !
साल का 180 वां दिन है आज।
विक्रम संवत् 2074  आषाढ़ शुक्ल छठी तिथि दिन गुरूवार।
हमारा  709 वां अंक 25  जून को शीर्षक 
हिन्दी के ठेकेदारों की हिन्दी सबसे अलग होती है 
ये बहुत ही साफ बात है
नाम से प्रकाशित हुआ था जिसे आदरणीय यशोदा जी ने 
बेहतरीन रचनाओं के साथ पेश किया था।
हमारे आदरणीय प्रोफ़ेसर डॉ. सुशील  कुमार जोशी जी की यह रचना 
सोचनीय सवालों को हमारे समक्ष खड़े करती है।   
इस रचना  पर  मेरी टिप्पणी पर चर्चा को मीना शर्मा जी,
दीपक भारद्वाज जी और विश्व मोहन जी ने आगे बढ़ाया है।
उपयोगी और सारगर्भित बिंदुओं को जोड़ा है। 
हिंदी के विस्तार और सृजन पर सारगर्भित चर्चाओं
का आयोजन होना चाहिए ताकि नयी पीढ़ी 
कुछ आत्मसात कर सके और हिंदी के
वैभवशाली इतिहास को समझ सके
और सर्जना में अपना यथोचित
योगदान दे सके।   
साथ ही हिंदी की धरोहर को सहेजने का सलीका भी सीख सके। 
                                     
चलिए अब आपको आज की रचनाओं की ओर ले चलते हैं -

लाख अँधेरे छाए हों फिर भी आशावाद का स्वर हमारी मायूसी को दूर भगा देता है।  भाई कुलदीप जी की यह रचना नई कविता के आयाम पेश करती है -

क्या झपट लेगा कोई मुझ से
रात में क्या किसी अनजान में
अंधकार में क़ैद कर देंगे
मसल देंगे क्या
जीवन से जीवन




महानगरीय सभ्यता ने हमसे बहुत कुछ छीन लिया है जिसे बखूबी पेश किया है 
मीना शर्मा जी ने अपनी इस रचना में - 
अंतर्जाल के आभासी रिश्तों में
अपनापन ढूँढ़ने की कोशिश,

सन्नाटे से उपजता शोर

उस शोर से भागने की कोशिश !

जीवन के विविध रूप पेश करती डॉक्टर सुभाष भदौरिया जी की ख़ूबसूरत रचना -

बीच में अपने जो दूरियां हैं.

बीच में अपने जो दूरियां हैं.

कुछ तो समझो ये मज्बूरियां हैं.


भीड़ में कोई ख़तरा नहीं हैं,

जान लेवा ये तन्हाइयां हैं.

                                          



मासूम बचपन के कोमल मन को क्या-क्या झेलना पड़ता,एक मार्मिक कहानी कविता रावत जी की-

उसका मन इतना व्यथित था कि वह एक नज़र भी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहता था। कभी सहसा चल पड़ता कभी रूक जाता। उसके आंखों में आसूं थे किन्तु सूखे हुए। वह सहमा-सहमा बाजार की ओर भारी कदम बढ़ाता जा रहा था। उसकी आंखों में चाचा-चाची की हर दिन की मारपीट का मंजर और कानों में गाली-गलौज की कर्कश आवाज बार-बार गूंज रही थी। बाजार पहुंचकर उसने निश्चय किया कि वह शहर की ओर जाने वाली सड़क के सहारे चलता रहेगा। 

बहुत ढूंढ़ने पर मिलती हैं बाल -साहित्य पर रचनाऐं।  रेणु बाला जी की बचपन को याद करती सुन्दर रचना।  थोड़ी देर के लिए आप भी खो जायेंगे अपने बचपन की सुखद स्मृतियों  में -

अलमस्त बचपन....रेणु

झुक -सा गया गगन नीला
अनायास धरती के गोद मे -
कोई फूल सा आन खिला
फेंक दिया किताबों का झोला-- 
चलते -चलते 
ब्लॉग पढ़ते -पढ़ते कुछ शब्द टकरा जाते हैं उन पर मनन होना चाहिए अतः उनके शुद्ध -अशुद्ध रूप की चर्चा को आगे बढ़ा रहा हूँ।  ऐसा शायद भाषा पर स्थानीय प्रभाव के कारण हो रहा हो ... 

                            अशुद्ध  शब्द               शुद्ध शब्द   
                                    ना                          न 
                                 बढ़ियाँ                      बढ़िया 
                                 दुनियाँ                     दुनिया 
                                  साँझा                      साझा 
                                   सिर                        सर 
                               दिमांग                       दिमाग़ 
  मित्रों,दोस्तों,बच्चों (सम्बोधन के लिए )     मित्रो,दोस्तो ,बच्चो  

                                           अब आज्ञा दें 
                                            फिर मिलेंगे 
                                                                 रवीन्द्र सिंह यादव 

बुधवार, 28 जून 2017

712..बनेगी अपनी बातें...


२ ८ जून २ ० १ ७ 

।।जय भास्करः।।
नमस्कारः सर्वेषाम्।
अथ श्री सुभाषित कथ्य से...


नही,  दिखती वो राहें
जिन्हें दिखाया किसी और ने..
था तो, वो एक इशारा,
कुछ लंबी, थोड़ी छोटी, कुछ आड़ी, थोड़ी तिरछी या थी बंद...
बनेगी अपनी बातें...
जब  उन राहों पर चल पड़ेगें हमारे कदम...

इन्हीं बातों को मद्देनज़र रखते हुए
आप सभी प्रस्तुत लिंको की और नज़र डाले

'डाँं अपर्णा त्रिपाठी' द्वारा रचित रचना ' पलाश ' से 


वक्त बता गया ये तो महीने भर की रोटी थी

कुछ भी तो नही किया, ये कहा था जन्मदाता से
पिता बन अहसास हुआ, उफ..

"'श्रीमती अजीत गुप्ता' का कोना "  से एक मर्मस्पर्शी रचना  


कल एक पुत्र का संताप से भरा पत्र पढ़ने को मिला।
 उसके साथ ऐसी भयंकर दुर्घटना  हुई थी 
जिसका संताप उसे आजीवन भुगतना ही होगा।
 पिता आपने शहर में अकेले रहते थे, उन्हें शाम
 को गाड़ी पकड़नी थी पुत्र के शहर जा..

कम शब्दों में गहरी बातो को रखने की कला 
'डॉ. सुशील कुमार जोशी' जी की रचना 



पूरी कहानियोँ
के ढेर के नीचे

कलेजा
बड़ा होना
जरूरी
होता है
हनुमान जी

'श्री गगन शर्मा' द्वारा रचित रचना "कुछ  अलग सा" से 




कि राम-रावण युद्ध का मुख्य कारण शूर्पणखा ही है 
पर कुछ रचनाकारों का मत कुछ अलग भी है, जिसे
 नकारा नहीं जा सकता। उनके अनुसार शूर्पणखा का राम और लक्ष्मण
 के पास जा प्रणय निवेदन करना सिर्फ एक दिखावा था असल में वह रावण के समूल नाश की एक भूमिका थी।

'श्रीमती श्वेता सिन्हा ' द्वारा सुंदर  ग़ज़ल  "मन के पाखी" से 




निगाहें ज़माने की झिर्रियों में खड़ी होती है

टूटना ही हश्र रात के ख्वाबों का फिर भी



अन्वीक्षा कर,
 नवीसी के साथ साथ संवाद,सुझाव की आकांक्षी
'' विचारपूर्ण प्रवाह की वेग थमने न पाए ''
।।इति शम।।
पम्मी सिंह


मंगलवार, 27 जून 2017

711...अँधेरे में रौशनी की किरण – हेलेन केलर

जय मां हाटेशवरी....
• यदि हम अपने काम में लगे रहे तो हम जो चाहें वो कर सकते हैं.
• चरित्र का विकास आसानी से नहीं किया जा सकता. केवल परिक्षण और पीड़ा के अनुभव से आत्मा को मजबूत, महत्त्वाकांक्षा को प्रेरित, और सफलता को हासिल किया जा सकता है।
• खुद की तुलना ज्यादा भाग्यशाली लोगों से करने कि बजाये हमें अपने साथ के ज्यादातर लोगों से अपनी तुलना करनी चाहिए.और तब हमें लगेगा कि हम कितने भाग्यवान हैं.
• अकेले हम कितना कम हासिल कर सकते हैं , साथ में कितना ज्यादा.

सादर अभिवादन....

27 जून 1880 - 1 जून 1968

हेलेन केलर जो ना सुन सकती थी....
न देख सकती थी....
न बोल सकती थी....
फिर भी वो सब कुछ किया....
जो पूर्णतः सक्षम व्यक्ति के लिये करना भी....
मुमकिन नहीं....
....मैं आज उनके जन्म दिवस पर याद करते हुए....
...उन्हे नमन करता हूं....
पेश है आज की लिये मेरी पसंद....


हेलेन केलर: जो हमें 'देखना' और 'सुनना' सिखाती है...पारुल 
केलर जब 19 महीने की थीं, तो एक बीमारी ने उनकी ये तीनों शक्तियां ख़तम कर दी. जिस उम्र में बच्चे आसपास की हर चीज़ को देख कर समझते हैं. बोलते हैं. सवाल करते हैं. उस उम्र में केलर अनजान अंधेरे और सन्नाटे से जूझ रही थीं.


अँधेरे में रौशनी की किरण – हेलेन केलर
एक दिन हेलेन की माँ समाचार पत्र पढ रहीं थीं, तभी उनकी नजर बोस्टन की परकिन्स संस्था पर पङी। उन्होने पुरा विवरण पढा। उसको पढते ही उनके चेहरे पर प्रसन्नता की एक लहर दौङ गई और उन्होने अपनी पुत्री हेलन का दुलार करते हुए कहा कि अब शायद मुश्किलों का समाधान हो जाए। हेलन के पिता ने परकिन्स संस्था की संरक्षिका से अनुरोध किया जिससे वे हेलेन को घर आकर पढाने लगी।



हेमला सत्ता भाग 2... कविता रावत
“आज भूत का चोला छोड़ मैं फिर से मनुष्य हुआ हूँ। इसके लिए मैं आपका ऋणी रहूंगा। सदा आपके गुण गाता रहूंगा। आप न मिलते तो मैं भूत बनकर ही किसी दिन मरकर पड़ा रहता।“  हेमला को कृपा दृष्टि से देख कर ठाकुर ने सबसे कहा- “सुनो, अब से भूलकर भी भूत से नहीं डरना। भूत-भाव के भय से देखो कैसे सबने हेमला को मनुष्य से भूत समझ लिया, यह प्रत्यक्ष उदाहरण तुम्हारे सामने है।“


"अनंत का अंत".......प्रगति मिश्रा 'सधु'
हर शब्द में एक काशिश ~~~~
एक नया उन्माद होता है
शब्द प्रेम है, शब्द अनुभव है 
शब्द तुममें है, शब्द मुझमें है


शाम....श्वेता सिन्हा
उतर कर आसमां की
सुनहरी पगडंडी से
छत के मुंडेरों के
कोने में छुप गयी
रोती गीली गीली शाम
कुछ बूँदें छितराकर
तुलसी के चौबारे पर


कलम जब कफन को उठाती....डॉ जयप्रकाश तिवारी
कवि की कलम
जब कफन को उठाती
तब कविता, कहानी
नई जग मे आती,
समस्याओं का हल भी
वही तो सुझाती।

भाई कुलदीप जी का नेट कोमा में है
प्रस्तुति दिग्विजय अग्रवाल के द्वारा बनाई गई है
रचनाकारों को सूचना प्रकाशनोपरान्त वे स्वयं देंगे

धन्यवाद।





सोमवार, 26 जून 2017

710.. संसार भी एक विचित्र मेला

सत्य ही है संसार भी एक विचित्र मेला है।
हर दुकान स्वयं में ही विविधता लिए हुए हमें लुभातीं हैं हम अपने जीवन का अनमोल क्षण इस मेले में घूमते हुए व्यतीत करते हैं,यदि कोई वस्तु पसंद आई उसे प्राप्त करने हेतु हम प्रयासरत हो जाते हैं। यदि वह वस्तु हमें मिल भी जाये ,क्षणमात्र की प्रसन्नता हमें प्राप्त होती है किन्तु यदि यह प्रयास हम उस भौतिक वस्तु के यथार्थ को 'अपने जीवन के लिए उपयोगी है या नहीं' को प्रमाणित करने में करें तो हमारा किया गया यह प्रयास हमें दर्शन की ओर आकृष्ट करता है एवं परमानंद की प्राप्ति होती है। उदाहरणार्थ, हमारी लेखनी जो हमें हमारे "पाँच लिंकों का आनंद" की ओर अग्रसर करती है 
तो सादर आमंत्रित हैं आपसभी परमानंद प्राप्ति हेतु 
आज की इस श्रृंखला में 
सर्व प्रथम आप सभी को ईद पर्व की शुभकामनाएँ


आज की श्रृंखला का प्रारम्भ आदरणीय  ''साधना वैद'' जी की एक कड़ी 
से करते हैं , सत्य ही है हमारे हाथ लाखों लोगों के सिर क़लम तो नहीं कर सकते  ,कोटि को प्रणाम अवश्य करने में  
     सक्षम हैं 


यह तय है कि अब ये हाथ
इतने अशक्त हो उठे हैं कि
इनसे एक फूल भी पकड़ना 
नामुमकिन हो गया है ।

'मन' एक ऐसा शब्द जिसकी व्याख्या स्वयं मैंने भी कई बार अपनी रचनाओं में की किन्तु आज भी  पूर्ण नहीं प्रतीत होती वैसे भी 'वायु से भी तीव्र वेग' से चलने वाले इस अस्थिर मन का आंकलन कठिन है फिर भी एक प्रयास हमारे युवा कवि आदरणीय ''पुरुषोत्तम'' जी अपनी रचना के माध्यम से करते हैं  
  


संताप लिए अन्दर क्यूँ बिखरा है तू,
विषाद लिए अपने ही मन में क्यूँ ठहरा है तू,
उसने खोया है जिसको, वो ही हीरा है तू,

एक शख़्स लोगों के ताने सुनता ,ईमान पे चोट खाता चंद पैसों की ख़ातिर, अपने बच्चों के लिए इस संसार में यदि कोई व्यक्ति है वो हैं हमारे आदरणीय ''पिता'' जिसकी महिमा का बखान हमारे उच्च कोटि के कवि 
आदरणीय "ज्योति खरे" जी अपनी रचना के माध्यम से करते हैं  


 कांच के चटकटने सी 
ओस के टपकने सी 
पतली शाखाँओं से दुखों को तोड़ने सी 
सूरज के साथ सुख के आगमन सी 
इन क्षणों में पिता 
व्यक्ति नहीं समुद्र बन जाते हैं 

गज़लों का काफ़िला गुज़रे और इस शख़्स का नाम न लें ! बहुत ही गुस्ताख़ी होगी,हमारे 
आदरणीय "राजेश कुमार राय" जी 


लौट के आना था सो मैं आ गया मगर
मेरी रूह तड़पती है मुकद्दर के शहर में

शब्दों का उचित चयन परिस्थितियों के अनुकूल बख़ूबी ज्ञात है 
'साहित्य का यह सितारा विश्व' में व्याप्त है 
आदरणीय ''विश्वमोहन'' जी 


तू चहके प्रति पल चिरंतन,
भर बाँहे जीवन आलिंगन/
      मै मूक पथिक नम नयनो से. 
     कर लूँगा महाभिनिष्क्रमण !


आज्ञा की आकांक्षी "मेरी भावनायें"
गीत गाता,गुनगुनाता 
मैं चला था 'सारथी' 
स्वप्न बुनता,स्नेह चुनता 
आस के दीपक जलाता 
अश्व पे वायु सवार 
श्रवण में हो,फुसफुसाता 
गीत गाता,गुनगुनाता 
मैं चला था 'सारथी' 

आभार 

  

रविवार, 25 जून 2017

709....हिन्दी के ठेकेदारों की हिन्दी सबसे अलग होती है ये बहुत ही साफ बात है

शत शत प्रणाम
भगवान श्री जगन्नाथ को

रविवार, 19 जुलाई 2015 को
याद करती हूँ..... आज का दिन
आज  के दिन ही प्रसव हुआ
नन्हे शिशु "पांच लिंकों का आनन्द" का
साथ जुड़े भाई कुलदीप जी
इस शीर्षक के साथ
स्वाभाविक है..जीवन साथी ने भी साथ दिया...
पहले ही अंक से मेरा हौसला बढ़ाते हुए 
मेरे अग्रज भाई डॉ. सुशील जी जोशी ने
अब तक मुझे दुलारते,पुचकारते व ललकारते हुए
आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहे..
यहाँ तक की यात्रा जारी रही निर्बाध, निरंतर
चलते-चलते तीन साथी और मिले....
पम्मी सिंह जी, ध्रुव सिंह जी एवं रवीन्द्र सिंह जी

आभार उन सभी को हम सफर बनने के लिए
हिन्दी तिथि के अनुसार आज का ये अंक 
वर्षगाँठ अंक है....बधाइयों की हकदार है ये
"पांच लिंकों का आनन्द"
मैं भूली नहीं हूँ अपने अतिथियों को
उन्होंने यहां आकर मेरा मान बढ़ाया
अब चलिए चलते हैं आज के नियमित अंक की ओर..
आज रथ यात्रा भी है...बड़ा ही शुभ दिवस
और सोने में सोहागा कि कल ईद-उल-फितर भी है
अद्भुत संगम है दोनों उत्सव का

बरसों से सोंचे शब्द भी उस वक्त तो बोले नहीं 
जब सामने खुद श्याम थे तब रंग ही घोले नहीं !

कुछ अनछुए से शब्द थे, कह न सके संकोच में,
जानेंगे क्या छूकर भी,हों जब राख में शोले नहीं !

इश्क पर ज्यों ज्यों कड़ा पहरा हुआ| 
रंग इसका और भी गहरा हुआ| 

कह रहे थे तुम कि गुनती जाती मैं| 
यूँ अचानक आज इक मिसरा हुआ| 

क्षितिज की रक्तिम लावण्य में,
निश्छल स्नेह लिए मन में,
दिग्भ्रमित हो प्रेमवन में,
हर क्षण जला हूँ मैं अगन में...
ज्यूँ छाँव की चाह में, भटकता हो चातक सघन वन में।


इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ ---अहमद फ़राज़
इस से पहले कि बेवफा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ


एक दिन.....श्वेता सिन्हा
खुद को दिल में तेरे छोड़ के चले जायेगे एक दिन
तुम न चाहो तो भी  बेसबब याद आयेगे एक दिन

जब भी कोई तेरे खुशियों की दुआ माँगेगा रब से
फूल मन्नत के हो तेरे दामन में मुसकायेगे एक दिन



कुछ तेरे ही हैं 
आस पास हैं 
और बाकी 
बचे कुछ 
क्या हुआ 
अगर बस
आठ पास हैं 
हिन्दी को 
बचा सकते हैं 
जो लोग वो 
बहुत खास हैं
खास खास  हैं।
....

काफी कुछ लिख गई
पर भाई कुलदीप जी हमारे ब्लॉग
"पांच लिंकों का आनन्द"
का वर्षगाँठ 19 जुलाई को ही मनाते हैं
कुछ विशेष यादगार होता है
वर्षगाँठ अंक..प्रतीक्षा करें
सादर