सादर अभिवादन..
आए हैं किस निशात से हम क़त्ल-गाह में
ज़ख्मों से दिल चूर नज़र गुल-फ़िशां है आज
चलिए चलें आज की मनपसंद रचनाओं की ओर....
तुम्हें याद है आज का दिन
जब पहली बार मेरे कानों में
तुम्हारी मधुर आवाज़ गूँजी थी
उस दिन रात- भर सोई नहीं थी मैं
हम गृहणियाँ
कवितायेँ लिखते लिखते
कब रसोई में जा कर सब्जी
बनाने लगती हूँ
आभास नहीं होता ......
और वो अधूरी कविता
पक जाती है सब्जियों के साथ ....
मांग में सिंदूर की लम्बी रेखा,
माथे पर गोल चाँद सी बिंदी,
गले दो धागों का मंगलसूत्र,
हाथो में चूड़ियां खनकती है,
ज्यों खिल उठती हैं किरणों के छूते ही
छा जाती वही सुर्खी रजनी के गालों पे
अरुण रथ का ध्वज लहराने से पहले
पकड़ दामन निशि नरेश शशांक का
जब चले आते हो, अंधेरे में रौशनी की तरह,
हर पोर मेरा, खिलता है एक कली की तरह।
ज्यूं छिटक जाये अमावस को चांदनी गोरी,
जगमगाते हो, हमेशा ही तुम, दिवाली की तरह।
तो मेरे आने का
इंतज़ार करोगी न
मैं लिखता हूँ सब
प्यार की कलम से
तुम पढ़ती रहोगी न
अरे... शीर्षक तो रह गया
वो सब कुछ हरा हो गया
इस सारे हरे के बीच में
जब ढूँढने की कोशिश
की सावन के बाद
बस जो नहीं बचा था
वो ‘उलूक’ का हरा था
हरा नजर आया ही नहीं
हरे के बीच में
हरा ही खो गया ।
सुन्दर चित्रों के साथ सुन्दर हलचल यशोदा जी । गुजरे साल के गुजरे हरे पर 'उलूक' के हरे बकवास की फिर से याद दिलाने के लिये आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति ..
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जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति, मेरी रचना को शामिल करने के लिए धन्यवाद
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