जय मां हाटेशवरी...
कौन गिरतों को यहां उठाता है।
ठोकरें यार बस लगाता है।
प्यार करता नही है वो हमसे।
अपने पैरों तले दबाता है।
रचनाकार
प्रदीप कश्यप
अब पेश हैं...आज की चयनित कड़ियां...
महफ़ूज़ रहे मुल्क हिफ़ाज़त की बात कर
जिन्दा रहे न कोई दरिन्दा जहान में ।
आते चुनाव में तू हजामत की बात कर ।।
नागन है इक तरफ तो नाग कुर्सियो पे है ।
लेकर खुदा का नाम रियासत की बात कर ।।
वर्षों से लुट रहा है यहां आम आदमी ।
अपनी दुआ में साफ़ हुकूमत की बात कर ।।
मुझे छोड़ न जाना |
मैं भी हूँ उत्सुक
जाना चाहती हूँ वहां
बहुतों को पहचानती हूँ
मैंने ठान लिया है
वहीं बनाऊँगी
अपना आशियाना
अपनों से बिछोहअब
सह न पाऊंगी |
नारी देवी तो देवी का अपमान क्यो
स्वाति सिंह ने जो किया वो बिल्कुल सही किया है , एक माँ और एक बहु का फर्ज निभाया है । मायावती जी कुछ स्वाति सिंह जी से भी सीखिए विरोध कैसे किया जाता है
बहनजी आप तो नारी थी और आप तो खुद को देवी मानती है फिर यह सब क्या है ।
भूतों का उपहार ( बाल कहानी )
" नहीं बेटा ! गरीब धन से नहीं , मन से होते हैं ! मेहनत की कमाई से जो सुकून मिलता है वही सच्चा ऐश है। जो तुम जादुई सामान लाये हो उनसे हम दावत नहीं करेंगे बल्कि उनको हम वापस देकर आएंगे। "
" क्यों माँ ! यह तो मुझे भूतों ने उपहार में दिए हैं। "
" ऐसे उपहार किस काम के जो हमें नाकारा बना दे। और सोचो अगर गाँव में किसी को पता चलेगा तो विश्वास कौन करेगा ? लोग तो यही कहेंगे ना कि जरूर ही ये कोई चोरी-डकैती करते होंगे ? "
" हां माँ ! ये तो मैंने सोचा ही नहीं था ! "
" हम लोग थैले से उतना ही रूपया लेंगे, जितने में हमारे घर की छत की मरम्मत हो जाये और खेत के लिए बीज खरीद सकें। "
माँ की बात सही भी थी। गोपाल मान गया। उन्होंने थैले से जरूरत भर के कुछ रूपये लिए और सारा सामान भूतों को लौटाने चल दिए। भूत भी माँ की बात और सोच से बहुत प्रसन्न थे। माँ ने उन भूतों को यह वचन भी दिया कि जो रूपये उन्होंने थैले से लिए हैं वे एक तरह से क़र्ज़ है और यह क़र्ज़ वह किसी जरूरतमंद की सहायता करके चुका दिया करेगी ताकि किसी और माँ बच्चे से बिछुड़ना ना पड़े। गोपाल और उसकी माँ ख़ुशी-ख़ुशी घर की और चल दिए।
"आतंक का कोई मज़हब नहीं होता"... ??
कम से कम इतना तो मानना ही पड़ेगा कि हर "नई शुरुआत" अमेरिका से होती है...
चाहे ओसामा की लाश को समुद्र में फेंकना हो, या ग्वांतानामो की जेल में आतंकियों को दी जाने वाली अभिनव यातनाएँ हों...|स्वाभाविक है कुछ नया सोचने और करने के लिए हिम्मत की जरूरत होती है. हम जैसे बेशर्म लोग तो अभी भी ससम्मान भारी भीड़ के साथ याकूब और बुरहान के जनाजे निकलते हुए देखते रहते हैं...
कौन है युवा
युवा उसे नहीं कहते जो किसी प्रचारित विचारधारा के पीछे भागने पर विवश रहे !
युवा उसे कहते हैं जिसके पास अपने विचार हों समाज के प्रति !
युवा उसे कहते हैं जो क्रांतिकारी विचारधारा रखता हो अपने देश के प्रति !
गांधी हत्या और आरएसएस
यह भी स्पष्ट हो गया है कि मात्र 10 लोगों द्वारा रचा गया यह षड्यंत्र था और उन्होंने ही इसे पूरा किया। इनमें से दो को छोड़ सब पकड़े जा चुके हैं। इस पत्र व्यवहार से भी स्पष्ट है कि कांग्रेस का एक धड़ा लगातार पंडित नेहरू को संघ के विरोध में गलत सूचनाएं उपलब्ध करा रहा था। लेकिन, वास्तविकता धीरे-धीरे स्पष्ट
होती जा रही थी।
महात्मा गांधी की हत्या से संबंधित संवेदनशील मामले को सुनवाई के लिए न्यायमूर्ति आत्मा चरण की विशेष अदालत को सौंपा गया। प्रकरण की सुनवाई के लिए 4 मई, 1948 को विशेष न्यायालय का गठन हुआ। 27 मई से मामले की सुनवाई शुरू हुई। सुनवाई लालकिले के सभागृह में शुरू हुई। यह खुली अदालत थी। सभागृह खचाखच भरा रहता था। 24 जून से 6 नवंबर तक गवाहियां चलीं। 01 से 30 दिसंबर तक बहस हुई और 10 जनवरी 49 को फैसला सुना दिया गया। सुनवाई के दौरान न्यायालय ने 149 गवाहों के बयान
326 पृष्ठों में दर्ज हुए। आठों अभियुक्तों ने लम्बे-लम्बे बयान दिए, जो 323 पृष्ठों में दर्ज हुए। 632 दस्तावेजी सबूत और 72 वस्तुगत साक्ष्य पेश किए गए। इन सबकी जांच की गयी। न्यायाधीश महोदय ने अपना निर्णय 110 पृष्ठों में लिखा। नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। शेष पाँच को आजन्म कारावास की सजा हुई। इस मामले में कांग्रेस और वामपंथियों ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी विनायक दामोदर सावरकर को भी फंसाने का प्रयास किया था। लेकिन, उनका यह षड्यंत्र भी असफल रहा। न्यायालय से सावरकर को निर्दोष बरी किया गया। इसी फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर यह कहा कि महात्मा गांधी की हत्या से संघ का कोई लेना-देना नहीं है। स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए थी। लेकिन, नहीं। न्यायालय के निर्णय से कांग्रेस और वामपंथी नेता संतुष्ट
नहीं हुए। संघ विरोधी लगातार न्यायालय के प्रति असम्मान प्रदर्शित करते हुए गांधी हत्या के लिए संघ को बदनाम करते रहे। बाद में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दबाव या भरोसे में लेकर इस मामले को फिर से उखाड़ा गया। वर्ष 1965-66 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गांधी हत्या का सच सामने लाने के लिए न्यायमूर्ति
जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में कपूर आयोग का गठन किया। दरअसल, इस आयोग के गठन का उद्देश्य गांधी हत्या का सच सामने लाना नहीं था, अपितु संघ विरोधी एक बार फिर आरएसएस को फंसाने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन, इस बार भी उन्हें मुंह की खानी पड़ी। कपूर आयोग ने तकरीबन चार साल में 101 साक्ष्यों के बयान दर्ज किए तथा 407 दस्तावेजी सबूतों की छानबीन कर 1969 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। आयोग अपनी रिपोर्ट में असंदिग्ध घोषणा करता है कि महात्मा गांधी की जघन्य हत्या के लिए संघ
को किसी प्रकार जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। (रिपोर्ट खंड 2 पृष्ठ 76)
आज बस यहीं तक...
धन्यवाद।
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम
बहुत अच्छी हलचल
प्रस्तुति
लिंक शामिल करने के
लिए धन्यवाद
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंशानदार चयन
आभार
सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं