सादर अभिवादन
आज फिर अतिक्रमण कर रहा हूँ
डर संक्रमण का है
संक्रमित हो गया गर तो...
चलिए रचनाओं की ओर.....
शिशिर का संकेत देती वादियाँ
मौसम की रंगीनियाँ सिमटी यहाँ
सैलानी यहाँ वहां नजर आते
बर्फबारी का आनंद उठाते
स्लेज गाड़ी पर फिसलते
बर्फ के खेलों का आनंद लेते
आज से पहले मुझे इतनी बैचेनी कभी नही हुई...
आज उसके ख़त का दूसरा दिन था...
रात भर ना जाने कितने ही ख़्यालो में
खोई रही,तुम्हारे खत के आज से,
जब विहँसे अवदात कौमुदी
मुकुलित कुमुदों के आँगन में
तुम मुझसे मिलने आना प्रिय
उज्ज्वल तारों के प्रांगण में
मैं वहाँ मिलूंगा लेकर बाहों का गलहार सखी रे
दुनिया को दिखाने को
कि बापू आज भी हमारी यादों में हैं
जबकि असलियत तो ये है कि
आप उनकी यादों में नहीं
सिर्फ जेबों में रह गए हैं
नोटों पर छपी रंगीन तस्वीर बन कर
"लिख लिक्खाड़ में",,,रविकर भाई
पढ़ो वेदना वेद ना, कम कर दो परिमाण |
रविकर तू परहित रहित, फिर कैसे निर्वाण ||
मुश्किल मे उम्मीद का, जो दामन ले थाम |
जाये वह जल्दी उबर, हो बढ़िया परिणाम ||
ये रही आज की प्रथम कड़ी..
"एहसासों का सागर में"...भाई मुकुल
कहना चाह कर भी .....
कहना भूल गया!
शोर सुना इतना की ...
सुनना भूल गया!
चुप रहना सिख कर ......
चुप रहना भूल गया!
इंसानों की बस्ती में
इंसान चुनना भूल गया!!
आज्ञा चाहता हूँ..
मैं रहूँ या न रहूँ
नई-जूनी रचनाओँ का
सिलसिला जारी रहेगा
सादर
दिग्विजय
वाह...
जवाब देंहटाएंहो तो गया संक्रमण
बिना कहे आकर प्रस्तुति बना दिए
सादर
शुभप्रभात...
जवाब देंहटाएंक्या बात है...
चुनकर मोती लाए हैं...
आभार आप का...
सुन्दर लिंक के साथ सार्थक चर्चा
जवाब देंहटाएंसादर
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंउम्दा चर्चा| मेरी रचना शामिल की धन्यवाद सर
बहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरेया
सुंदर लिंक्स ... आभार काव्यसुधा को शामिल करने के लिए
जवाब देंहटाएंसुन्दर लिंक के साथ चर्चा
जवाब देंहटाएं