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बुधवार, 15 नवंबर 2017

852..पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यों है..

१ ५ नवम्बर २ ० १ ७ 
।।प्रातः वन्दन।।

सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान सा क्यों है
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है

दिल है तो, धड़कने का बहाना कोई ढूंढें
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यों है

क्यूँ हैरान है ? आप सभी इन बोल से 

पर यहीं सच्चाई है आजकल,
प्रदूषण के संबंध में पिछले साल भी और इस साल भी
 खूब बैठकों का दौर चला ..तमाम 
योजनाओं के बावजूद हम मौजूद महासंकट से हार रहें हैं
 तभी तो स्माँग चेम्बर में रहने को विवश है..वातावरण में शामिल
 जहरीले तत्व सेहत के लिए निहायत ही जानलेवा साबित हो रही है।
 इस दुर्दशा के जिम्मेदार सरकार, दिल्लीवासी और पड़ोसी राज्य सभी है...
त्वरित समाधान की आवश्यकता है क्योंकि जिस अवस्था में हम सभी  है रुका नहीं 
जा सकता समस्या से पार आगे  भी जाना जरूरी है।

कहीं.. इस बार भी समाधान तेज हवाओं के रुख और बारिश पर तो नहीं...

फिर सबबब.. ठीक हो जाएगा।

चलिए अब नज़र डालते है आज की लिकों पर..✍

ज्योति खरे जी की रचना..

बहुत खास होते हैं
अपनों से भी अधिक
जैसे
पुरुष के लिए प्रेमिका
स्त्री के लिए प्रेमी

मनमोहन भाटिया जी की कथा..
कृष्ण गोपाल को बिस्कुट खाते देख कंचन ने पूछा "नाश्ता बना दूं,क्या लोगे?"
"हां भूख लग रही है। कुछ भी बना दे। क्या बनाओगी?"
"आलू का पराठा बना दूं?"
"बना दे।"
कंचन ने पराठे के साथ अदरक वाली चाय भी बना दी।

ध्रुव जी की  बहुत गहरे भाव और आध्यात्मिक रचना ..


सम्भालो नित् नये आवेग
रखकर रक़्त में 'संवेग' 
सम्मुख देखकर 'पर्वत'
बदल ना ! बाँवरे फ़ितरत
अभी तो दूर है जाना
तुझे है लक्ष्य को पाना
उड़ा दे धूल ओ ! पगले

ब्लॉग कबाड़खाना से..


जब भी विभाजन का राउंड फिगर आता है- जैसे, 40, 50, 60, 70 तो हमारे 
अंदर का इतिहासकार जाग उठता है.
सबसे पहले उन बूढ़ों की खोज लगाने की होड़ शुरू हो जाती है
 जिन्होंने विभाजन ख़ुद देखा या भोगा हो ताकि उनकी यादें रिकॉर्ड
 करके ताज़े हरे या गेरुए गिफ़्ट पैक में बांध के नई खोज़
 की सुनहरी फीते लपेट के पेश किया जा सके.

मीना शर्मा जी की अभिव्यक्ति का आनंद ले..


पलकों के अब तोड़ किनारे,
पीड़ा की सरिता बहने दो,
विचलित मन है, घायल अंतर,
एकाकी मुझको रहने दो।।
शांत दिखे ऊपर से सागर,
गहराई में कितनी हलचल !

अशोक जी  की रचना..

 उसका नाशुक्रा होना, सख्त नापसंद है
मुझे बस... अपनी ज़मीनी हकीक़त पसंद है... 

आज़ की बातें वातें यहीं तक ..✍

।।इति शम।।
धन्यवाद।

20 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात सखी
    एक और अच्छा प्रस्तुति
    धूल
    धुंआ
    और
    कोहरा
    नाक पर
    रूमाल बांधे लोग
    पर आँखों का क्या
    जलन तो उसी में है
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. फूल पत्तियां हरियाली खा गये
    ध्रुम कोहरा तक हम पा गये
    होश में हम अभी भी नहीं आ रहे

    उम्दा लिंक्स संयोजन बधाई

    जवाब देंहटाएं
  3. सुप्रभात।
    आदरणीया पम्मी जी शानदार अंक।
    बधाई आपको।
    प्रासंगिक भूमिका।
    नामचीन शायर शहरयार साहब की ग़ज़ल (1978 , आर्ट फ़िल्म गमन ) का पहला शेर वर्षों बाद दिल्ली में जीने के लिए दुश्वारियां पैदा करते छाए प्रदूषित स्मोग और असहाय लोगों पर इस तरह फिट बैठेगा कि इसका ज़िक्र लिखने वाले लेख ,कविता, भूमिका या ट्विटर पर भी करेंगे।
    दिल्ली में हूँ तो इस आफ़त को सबके साथ महसूस भी कर रहा हूँ।
    व्यवस्था दोषारोपण में व्यस्त हैं लेकिन नागरिक बुरी तरह त्रस्त हैं।
    कुछ फ़ौरी व्यावसायिक उपाय भी आ गए हैं।
    सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाऐं। आभार सादर।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुप्रभात पम्मी जी,
    विचारणीय भूमिका लिखी है आपने,बेहद
    गंभीरता से हल करना आवश्यक है इस समस्या को।

    हैरान कम परेशान ज्यादा है लोग
    घुटी साँस है ज़हर पीने को मजबूर है
    ज़िदगी की तलाश में अब कहना पड़ेगा
    हवाओं में जहर भरने लगा
    आसां मौत के लिए अब कहाँ दिल्ली दूर है

    बहुत ही उम्दा संकलन सारी रचनाएँ बेहतरीन है। चयनित रचनाकारों को मेरी बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ।

    जवाब देंहटाएं
  5. दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के स्थायी समाधान खोजने होंगे, वरना वर्ष दर वर्ष यह समस्या बढ़ती ही जाएगी. सुंदर सूत्रों का चयन..बधाई इस शानदार प्रस्तुति के लिए..

    जवाब देंहटाएं
  6. प्रदूषण की मार झेलते हैं परिस्का समाधान नहीं ढूंढना चाहते ....
    आचे लिंक्स ...

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत बढ़िया प्रस्तुति,सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाऐं...

    जवाब देंहटाएं
  8. सुन्दर प्रस्तुति करण उम्दा लिंक संकलन....

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत आभार आप के दिए स्नेह का ....

    जवाब देंहटाएं
  10. सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान सा क्यों है
    इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है

    दिल है तो, धड़कने का बहाना कोई ढूंढें
    पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यों है....
    सामयिक मुद्दा - प्रदूषण ! सिर्फ चर्चाएँ, ठोस उपाय कुछ नहीं। हर सवाल की तरह ये भी एक सवाल...
    एक गीत याद आ रहा है -
    "इक सवाल मैं करूँ
    इक सवाल तुम करो
    हर सवाल का
    सवाल ही जवाब हो"

    जवाब देंहटाएं
  11. बेहतरीन प्रस्तुति आदरणीय पम्मी जी द्वारा। मेरी रचना को शामिल करने हेतु सादर आभार। सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  12. बेहतरीन संकलन आदरणीया । बहुत खूब ।

    जवाब देंहटाएं
  13. बहुत सुंदर प्रस्तुति। मोहक अंक। सभी रचनाकारों को उनकी शानदार रचनाओं के लिये बधाइयाँ

    जवाब देंहटाएं
  14. आदरणीया,
    सार्थक और तथ्यपरक भूमिका के लिए साधुवाद
    सुंदर लिंक संयोजन
    सभी रचन्काकारों को बधाई
    मुझे सम्मलित करने का आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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