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शुक्रवार, 30 जून 2017

714.....''बचपन जीवन की सबसे अनमोल अवस्था''

'बचपन जीवन की सबसे अनमोल अवस्था', किन्तु अनमोल शब्द किन बच्चो के सन्दर्भ में उनके जिन्होंने ने निर्धनता व समस्यायें नहीं देखीं अथवा वे जिनका जन्म ही निर्धनता की बलि चढ़ने हेतु हुआ है। बहुत से हमारे सम्माननीय रचनाकार ( संभवतः जिनमें मैं भी शामिल हूँ ) बचपन पर अतुलनीय लेखन कर रहे हैं ,निःसंदेह सराहनीय है, किन्तु एक पहलू को उजागर करना ,महिमामण्डन दूसरी तरफ निर्धनता व समस्याओं से घिरा रहने वाला बचपन ! मेरे विचार से एक सुख-सुविधा से परिपूर्ण बचपन ,अपने स्वप्न से प्रतीत होने वाले बचपन में ही रहना चाहता है क्योंकि उसे सभी मूलभूत वस्तुएं प्राप्त हैं किंतु एक निर्धन व अनेक समस्याओं से घिरा बचपन शीघ्र ही बड़ा होना चाहता है। साहित्य जगत की बात करें ,हमारे सम्माननीय लेखकगण वर्तमान में बचपन का जो दृश्य अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं ,ये वही सुख-सुविधाओं से पूर्ण ,आर्थिक समस्याओं से मुक्त बचपन की गाथा है जो आज के विमर्श का मुद्दा हो सकता है किन्तु, इस लोकतांत्रिक राष्ट्र में प्रत्येक व्यक्ति के विचार स्वतंत्र हैं। 
अतः ये मेरे स्वयं के विचार हैं। 

विचारों की दहलीज़ पर 
"पाँच लिंकों का आनंद" 
में 
आपका स्वागत एवं अभिनंदन।  


सत्य ही है प्रकृति सदैव ही मानव को अपने स्रोतों से आह्लादित करती है किन्तु हम निष्ठुर मनुष्य स्वार्थ की सीमा पार करते हुए उसके अवयव से खिलवाड़ कर रहें हैं ,प्रकृति के उत्तम चरित्र से साक्षात्कार कराती 
आदरणीय ,डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी की रचना  


धरा में जो दरारें थी, मिटी बारिश की बून्दों से,
किसानों के मुखौटो पर, खुशी चमका गये बादल।



कहते हैं लिखने से अत्यधिक कठिन एक बेहतर पाठक बनना है किन्तु हमारी आदरणीय "यशोदा दीदी" बेहतर पाठक होने के साथ-साथ एक श्रेष्ठ संकलनकर्ता भी हैं, जिनकी संकलित एक रचना जो  सुरेन्द्र कुमार 'अभिन्न' द्वारा रचित है  


कठोरता का हल चला कर,
तुमने ये कैसा बीज बो दिया? 
क्या उगाना चाहते हो 
मुझमें तुम,


यह तो सत्य है दुनिया गोल है वैज्ञानिक तथ्यों से स्पष्ट कर चुके हैं परन्तु आज हमारे 
आदरणीय,"राहुल मिश्रा" जी अपनी रचना से सिद्ध कर रहे हैं 


कुछ ग़ुम हुए 
त्यौहार 
अपनी अलग 
कहानियां सुनाते 

कोई भी स्वचालित वैकल्पिक पाठ उपलब्ध नहीं है.
सूझ-बूझ.....विभा दीदी
शाम के समय, विभा अपने घर के बाहर टहल रही थी तो पड़ोसन का कुत्ता उसकी साड़ी को अपने मुँह में दबाये बार-बार कहीं चलने का इशारा कर रहा था... वर्षों से विभा इस कुत्ते से चिढ़ती आई थी क्यूंकि उसे कुत्ता पसंद नहीं था और हमेशा उसके दरवाजे पर मिलता उसे खुद के घर आने-जाने में परेशानी होती... अपार्टमेंट का घर सबके दरवाजे सटे-सटे... जब विभा कुत्ते के पीछे-पीछे तो देखी रोमा बेहोश पड़ी थी इसलिए कुत्ता विभा को खींच कर वहाँ ले आया था... डॉक्टर को आने के लिए फोन कर, पानी का छींटा डाल रीमा को होश में लाने की कोशिश करती विभा को अतीत की बातें याद आने लगी





चिरपरिचित ,समाज की बुराईयों पर व्यंग के शब्द भेदी बाणों की वर्षा करते हमारे 
आदरणीय,''सुशील कुमार जोशी'' जी 
इनकी रचनाओं का वर्णन 'सूर्य को दीया' दिखाने जैसा प्रतीत होता है ,जबकि सारगर्भित रचनायें स्वयं ही बोलतीं हों अपने रहस्य !
कई बरसों तक 
सोये हुऐ पन्नों पर 
नींद लिखते रहने से 
 शब्दों में उकेरे हुऐ 
सपने उभर कर 
नहीं आ जाते हैं 

अंत में आदरणीय,  "शालिनी रस्तोगी" जी की रचना 


ये जो तुम ,अहसा दिखा के कर रहे हो 
प्यार तो नहीं ,तुम्हारी ख़ुदगर्जियाँ हैं 


आज्ञा दीजिए ''मेरी भावनाओं'' के साथ

तूँ बोले ! सौग़ात नहीं 
स्वप्नों में जीना ज्ञात नहीं 
महिमा मंडित उनका तूं करता 
जिनका बचपन है मुक्त क्लेशों से 
भाग्य के मारे !
दिवास्वप्न रोटी के सहारे 
क़लम नहीं हैं हाथ हमारे 
बस इच्छा है काम की प्यारे 
तूँ बोले ! सौग़ात नहीं 
         स्वप्नों में जीना ज्ञात नहीं .....   


10 टिप्‍पणियां:

  1. उम्दा प्रस्तुतीकरण
    आभारी हूँ अपने पोस्ट को यहाँ देख ख़ुशी हुई
    असीम शुभकामनाएँ

    जवाब देंहटाएं
  2. शुभ प्रभात...
    आज की प्रस्तुति देख विस्मित हूँ
    आज दो चर्चाकारों की पसंदीदा रचनाएँ पढ़ने को मिली
    आज भाई ध्रव सिंह को पैतृक गाँव जाना था सो उन्होंनेें
    ये प्रस्तुति सोमवार के लिए बनाई........और
    भाई कुलदीप को उनके साहब दौरे पर अपने साथ ले गए
    जो हुआ अच्छा ही हुआ
    और जो होगा इससे अच्छा होगा
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। नये नये प्रयोग होते रहने चाहिये। आभार 'उलूक उवाच' को जगह देने के लिये।

    जवाब देंहटाएं
  4. एकलव्य जी की यह पंक्ति आज की प्रस्तुति को चार चाँद लगा रही है।।।
    तूँ बोले ! सौग़ात नहीं
    स्वप्नों में जीना ज्ञात नहीं
    महिमा मंडित उनका तूं करता
    जिनका बचपन है मुक्त क्लेशों से
    भाग्य के मारे !
    दिवास्वप्न रोटी के सहारे
    क़लम नहीं हैं हाथ हमारे
    बस इच्छा है काम की प्यारे
    तूँ बोले ! सौग़ात नहीं
    स्वप्नों में जीना ज्ञात नहीं .....
    सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई

    जवाब देंहटाएं
  5. बेहतरीन लिंक संयोजन ! बहुत सुंदर आदरणीय ।

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह ध्रुव जी बहुत विचारणीय अंक प्रस्तुत किया आपने। चिंतनीय भूमिका, बेहतरीन रचनाएं और अंत में मार्मिक भावनाएं। बधाई ,शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  7. कमाल है..
    इतनी अच्छी प्रस्तुति और लिकों का चयन..
    अंत में मार्मिक भावनाएं बहुत सुंदर.
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत सुन्दर हलचल प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  9. सुन्दर लिंक। मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए आभार।

    जवाब देंहटाएं
  10. सुन्दर प्रस्तुति। बचपन का जिकर अच्छा लगा.

    जवाब देंहटाएं

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