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रविवार, 16 अक्तूबर 2016

457....गीत पर एक गीत

     सुप्रभात 
नमस्कार दोस्तो 
आज रविवारीय चर्चा मे आपका स्वागत है 

आइए आज की लिंको की ओर.......



दस्तक दे रहा है दर्द 
कोई दिल पर आज,
लगता है फिर से हुई 
कोई खुशी नाराज़।

सोचती हूं हर बार न 
होठों पर हंसी आए,
कोई न इस तरह से 
यूं मुझे नज़र लगाए,
गुलशन पर मेरे कोई 
फिर गिरा गया है गाज़,



अच्छे के साथ अच्छा होता है ।

     


कभी चढ़ाई है यहाँ, होता कभी ढलान।
नहीं समझना सरल कुछ, जीवन का विज्ञान।।
--
सच्ची होती मापनी, झूठे सब अनुमान।
ताकत पर अपनी नहीं, करना कुछ अभिमान।।
--
कंचन काया को कभी, माया से मत तोल।
दौलत के अभिमान में, बुरे वचन मत बोल।।




बच्चो,
तुम इस देश के भविष्य हो,
तुम दिखते हो कभी,
भूखे, नंगे ||

कभी पेट की क्षुधा से,
बिलखते-रोते.
एक हाथ से पैंट को पकड़े,
दूजा रोटी को फैलाये ||



'नानी ,काँ पे हो...?'
'कौन है ?'अनायास मेरे मुँह से निकला,
महरी बोली,'आपकी नतनी ,और कौन ?'
वैसे मैं जानती हूँ कौन आवाज़ लगा रहा है.
और कौन हो सकता है इतना बेधड़क !
पहले चिल्ला कर पूछती है ,पता लगते ही दौड़ कर चली आती है.नानी के हर काम में दखल देना जैसे उसका जन्म-सिद्ध अधिकार हो. 
सोच रही थी मशीन पर बैठ कर उसकी फ़्राक की सिलाई पूरी कर दूँ .


गीत बिना मर जाएंगे। 
पत्तों-सा झर जाएंगे।

गीत हमें ज़िंदा रखते हैं, 
घावों को सहलाते हैं। 
जब हम होते एकाकी तो -
गीत दौड़ कर आते हैं। 
अगर गीत निकले जीवन से, 
बाद में हम पछताएंगे।।
गीत बिना मर जाएंगे।


अब दिजिए आज्ञा 
आप मुझे यहा पर मिल सकते है
विरम सिंह
सादर 

8 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात..
    गीत बिना मर जाएंगे।
    पत्तों-सा झर जाएंगे।
    अच्छी रचनाएँ
    उम्दा चयन
    साधुवाद...
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. शुभप्रभात...
    सुंदर प्रस्तुति...
    आभार।

    जवाब देंहटाएं
  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं

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