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बुधवार, 17 अगस्त 2016

397...यदि सच में स्वाभिमान है तो सीता बनो

सादर अभिवादन..
मास श्रावण
विदा लेने के तत्पर
महिलाओं के व्रत-त्योहार का मौसम 
बस आने को है.

आज मेरे द्वारा चयनित रचनाएँ...


विश्वेश्वराय नरकार्णवतारणाय 
कर्णामृताय शशिशेखरधारणाय। 
कर्पूरकांतिधवलाय जटाधराय 
दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय 


रह गई पुष्पा स्तब्ध  
है कैसा ये परिवार  
करते हैं व्यंग 
हर बड़ी छोटी बात में 
क्या अभी अभी 
मेरे शादी के बाद 
राखी प्रचलन में आया है 
मेरी माँ भी मामा को राखी बांधना शुरू कर दी थीं
बोलना चाहती थी पुष्पा
पर...
आवाज घूंट कर रह गई 
कहीं शाखें चरमरा गई 


फिर किसी अखबार ने छापी खबर,
लाज को लूटा गया है रात-भर।
दुष्ट दुर्योधन बिठाने फिर लगा,
सभ्यता को अपनी नंगी जांघ पर।
आबरू कोई न अब बेजार हो,
नौजवानो! तुम उठो ललकार कर।

मीठे सोच हमारे, स्वारथवश कड़वाहट धारे
भइया का दुश्मन अब भइया घर के भीतर है।

इक कमरे में मातम, भूख गरीबी अश्रुपात गम
दूजे कमरे ताता-थइया घर के भीतर है।

ओह ...मैडम
झुकते-झुकते गिरीं
उड़ते-उड़ते बिखर गईं ज़ुल्फें ...
कोई इतनी तारीफ न करे रब्बा ! बैक स्टेज गईं ...
ब्रा हटा के कोई बार-बार मूँछें टांग जाता है स्क्रीन पर , हटाओ यार !


आज की शीर्षक रचना....
कलयुग में सबने सीख दी - "सीता बनो"
यह सुनकर 
स्त्री या तो मूक चित्र हो गई 
या फिर विरोध किया 
"क्यूँ बनूँ सीता ?
राम होकर पुरुष दिखाये !"
........
आज्ञा दें यशोदा को..
कल नहीं आउँगी मैं
मास श्रावण का अंतिम दिन जो है
सादर..

5 टिप्‍पणियां:

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