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बुधवार, 25 मई 2016

313...हवा से हवा में हवा भी कभी सीख ही लेना

सादर अभिवादन स्वीकार करें

आज का प्रस्तुति..
तनिक से कुछ अधिक ही
लम्बी हो गई है
किंकर्तव्यविमूढ़ थी
काफी से अधिक रचनाएँ छूट भी गई...


निर्मल गुप्त......
कुर्सी पर बैठते ही आदमी
घिर जाता है उसके छिन जाने की
तमाम तरह की आशंकाओं से
इस पर बैठ जाने के बाद
वह वैसा नहीं रह पाता
जैसा कभी वह था नया नकोर।



अपर्णा त्रिपाठी....
जाने लोग बदल गये, या मेरा नजरिया बदल गया
कुछ तो बदला है हवाओं में, कि मौसम बदल गया

कल तक रोये जिसके लिये, उसे पल मे भुला दिया
दो दिन में दिल की धडकने बदली, दिल बदल गया


प्रफुल्ल कोलख्यान....
ओ मेरी जाँ नहीं मैं जिंदा हूँ तेरे अंदर
चाँद को पता है जानता है समंदर

पूछो चाँद से देखो क्या कहता है समंदर
घुमड़ता है जुल्फों में जो आँसू का समंदर


दर्द दिल का ज़िंदगी में हम बता देते नहीं  
नैन में जज़्बात अपने हम  छिपा लेते कहीं
ज़ख्म इस दिल के दिखायें हम किसे जानिब यहाँ
शाम होते ही सजन महफ़िल सजा लेते कहीं


मनोज नौटियाल....
जला देना पुराने ख़त निशानी तोड़ देना सब
तुम्हारी बात को माने बिना भी रह नहीं सकता
मिटा दूं भी अगर मै याद करने के बहानों को
तुम्हारी याद के रहते जुदाई सह नहीं सकता ||


गिरीश पंकज....
पानी से जब बाहर आई
इक मछली कित्ता पछताई
पानी से जब दूर हुई तो
मछली तूने जान गँवाई
मछली बच गई मगरमच्छ से 
इंसानों से ना बच पाई



प्रथम व शीर्षक रचना..
डॉ. सुशील जोशी...
कभी तो माना 
कर जमाने के 
उसूलों को 
‘उलूक’ 
किसी एक 
पन्ने में पूरा 
ताड़ का पेड़ 
लिख लेने से 
सब कुछ 
हरा हरा 
नहीं होना ।

और अंत में क्षमा याचना
कुछ ब्लॉग में सूचना देते समय दिनांक का ध्यान नही रहा
बुधवार 25 मई 2016 के स्थान पर बुधवार 27 मई 2016
लिख भेजी हूँ

इज़ाज़त दे यशोदा को
कल फिर मिलते हैं....





5 टिप्‍पणियां:

  1. मछली बच गई मगरमच्छ से
    इंसानों से ना बच पाई।
    वाह! बहुत सुन्दर !!!

    जवाब देंहटाएं
  2. बढ़िया प्रस्तुति सुन्दर सूत्रों के साथ । आभार यशोदा जी 'उलूक' की हवा को हवा देने के लिये :)

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत प्यारे लिंक दिए, आभार आपका !!

    जवाब देंहटाएं
  4. Yashoda ji,
    Tahe dil se aapki sukrgujar hun. Appka sneh pa kar bahut khushi hoti hai.

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति
    आभार!

    जवाब देंहटाएं

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