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बुधवार, 13 अप्रैल 2016

271...जलियाँवाला बाग में बसंत

जय मां हाटेशवरी...


आज वैसाखी है....
पर मुझे तो  आज...
सुभद्राकुमारी चौहान जी की ये कविता याद आ रही है...
यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

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इन शहीदों को श्रधांजली के रूप में...

ये जलियावाला बाग कोई साधारण बाग नहीं है
ये पुण्य धरा है बलिदानी क्रांति के मतवालो की
निहत्थों पर जब बन्दूंके चलवाई कमज़र्फ डायर ने
गवाही देती चीखें हैं रक्तरंजित अंगेजी शाशनकाल की
जनसैलाब डटा हुआ था जब आज़ादी की लेकर के मांग
बेमौत मारे डाले गये सब वीर अमर शहीद दीवानों की


अब देखिये मेरी पसंद....

एक अविस्मरणीय मुलाक़ात -- रश्मि रविजा जी के साथ
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 वो आये घर में हमारे, खुदा की कुदरत है
 कभी हम उन्हें कभी अपने घर को देखते हैं
 

फकत पैसे ही पैसे और पैसे ...
तरक्की ले गई अमराइयां सब
शजर ये रह गया जैसे का तैसे
हवस इंसान की मिटती नहीं है
फकत पैसे ही पैसे और पैसे


कुण्डलियाँ भरे कैसी यह सुविधा
पीरा मन का क्षोभ है, सुख है संचित नीर
दबी हुई चिंगारियाँ,  ईर्ष्या बनती पीर
ईर्ष्या बनती पीर, चैन भी मन का खोते
कटु शब्दों के बीज, ह्रदय में अपने बोते
कहनी मन की बात, तोष है अनुपम हीरा
सहनशील धनवान , कभी न जाने पीरा।


चांदनी
जब पूरणमासी आती
तुम अटखेलियाँ करते
जल की उत्तंग तरंगों से
मैं भी साथ तुम्हारा देती
पीछे न रहती
यही बात मन में रहती
है यह रिश्ता बहुत पुराना
जैसा है वैसा ही रहे
  तुमसे अलग न होने दे |


आदत है ‘उलूक’ की मुँह के अंदर कुछ और रख बाहर कुछ और फैलाने की
कहाँनिया हैं लेकिन
बेफजूल की हैं
कुछ नहीं पर भी
कुछ भी कहीं पर भी
लिख लिख कर
रायता फैलाने की है
एक बेचारे सीधे साधे
उल्लू का फायदा
उठा कर हर तरफ
चारों ओर उलूकपना
फैला चुपचाप झाड़ियों
से निकल कर
साफ सुथरी सुनसान
चौड़ी सड़क पर आ कर
डेढ़ पसली फुला
सीना छत्तीस
इंची बनाने की है



धन्यवाद....






7 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात...
    बाग..
    वो भी जलियांवाला
    और वसंत
    उस बाग में
    आँसुओं की बरसात में
    पल्लवित पौधे..
    खुद ही रो रहे हैं
    फिर ये वसंत कैसा
    .........
    उत्तम प्रस्तुति
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर लिंक्स एवं बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिये आपका हृदय से आभार कुलदीप जी ! बहुत-बहुत धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं
  3. उत्तम प्रस्तुति ...
    सुन्दर लिंक चयन ... आभार मुझे शामिल करने का ...

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति
    आभार!

    जवाब देंहटाएं
  5. सुन्दर हलचल । आभार कुलदीप जी 'उलूक' के सूत्र 'आदत है ‘उलूक’ की मुँह के अंदर कुछ और रख बाहर कुछ और फैलाने की' को आज की हलचल में जगह देने के लिये ।

    जवाब देंहटाएं

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