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सोमवार, 7 मार्च 2016

234....खो गए हैं अब वो स्वप्निल से पल !


कूटे शरीर
*पी नशेड़ी , 
पले कुपूत
स्त्री बेच
फिर..से
*पी=पति
थोड़ा तोड़-मरोड़ दी हूँ
दीदी क्षमा कर दीजिएगा

चलिए चलते हैं.....

यह  शहर भी  जेब  को  पहचानता है ।
गर्दिशों   में    बन   धुँआ  उड़ते  रहो ।।

सच  से वाकिफ हो चुकी है आशिकी ।
तुम  जमी  को  आसमाँ   कहते  रहो ।।


जो मन में घटित हो रहा था उसे लिख नहीं लिया . 
क्या कहा जाए इसे ? 
क्या ये लेखन की सफलता नहीं ? 
आज का युवा जो लिख रहा है 
वो पढ़ा जाना भी उतना ही जरूरी है 
जितना वरिष्ठों को . 


असहनीय अशोभनीय बातें तब तक सहती रही 
जब तक सहनशक्ति जबाब नहीं दे दिया ..... 
एक दिन बिफर ही पड़ी और चिल्लाई .... खाने में जहर दे .... 
सबको मार कर , घर में आग लगा दूंगी .... 
सब स्तब्ध रहे ..... पिटने का अंत हुआ ..... 
धीरे धीरे खुद के लिए लड़ना सीख गई और 
आत्मसम्मान से जीने की कोशिश करने लगी .... 


वतन है तो हम हैं ,वरना बे-कफन हैं-
आदर्श हमारे आयातित नहीं हो सकते
हम मुकम्मल हैं इतने हमारे फन हैं -
न स्टेलिन न हिटलर की सभ्यता माँगूँ


शाम की परतों में 
दफ़्न रहते हैं 
जाने कितने ही  
अधूरे ख्वाब 
मजबूर ख्वाहिशें , 
भूखे पेट , टूटे शरीर 
पूरे दिन का दर्द समेटे

और ये है आज की शीर्षक रचना का अंश


नयी उड़ान में....उपासना सियाग
चमकते सितारों से
नज़र आते हैं बुझी राख से ....
खो गए हैं अब
वो स्वप्निल से पल !

आज्ञा दें यशोदा को
फिर मिलते हैं..


5 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात छोटी बहना
    बहुत अच्छा लगता है जब आपको अपने लिखे को पसंद करते देखती हूँ
    आभारी हूँ _/\_

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. महा शिवरात्रि की शुभ कामनाएँ...

      लो फिर आया
      ॠतुराज बसंत
      मस्त तरंग ।

      सादर

      हटाएं
  2. बहुत अच्छी हलचल प्रस्तुति हेतु आभार!
    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभ कामनाएँ...

    जवाब देंहटाएं

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