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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

ख़ुद देख लीजे करिश्मा ख़ुदी का...पृष्ठ बियासी में

अभिवादन स्वीकारें दिग्विजय का

कबर को देख के ये रंज होता है “दोस्त”,
बस इतनी सी जगह के लिए मरना पड़ा…

इससे जियादा 
तो था 
हमारे पास
जब हम 
ज़ीवित थे....
ये रही आज की कड़ियाँ....


ना इसका हूँ 
ना उसका हूँ 
क्या करूं 
इधर भी हूँ 
उधर भी 
रहना ही रहना है


वो चल रही थी
अपनी धुरी पर...
वो चलती रही... 
युगों युगों से है जल रही 
हमें शीतलता देने को
वो ख़ुशी ख़ुशी जलती रही... 


जिन्दगी जीना
कोई दीपक से सीखे 
कब तलक डाले रहेगी रात डेरा
देखना इक रोज आयेगा सवेरा
जिन्दगी जीना कोई दीपक से सीखे
खुद जला पर दूर कर डाला अँधेरा



कभी कभी पराई मां भी
एक पुत्र को
उसकी जननी से भी
अधिक प्रेम करती है
पर उसका  सदा ही
केकयी सा ही अनादर होता है...


अजब  रंग  है  आपकी  दोस्ती  का
कि  एहसास  होने  लगे  बेबसी  का

शबे-वस्ल  तो  बख़्श  दीजे  ख़ुदारा
ये  मौक़ा  नहीं  है  मियां  दिल्लगी  का


ग़जल नुमा कहानी
वो हमसफ़र था मगर उससे हमनवाई न थी
कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी...


इनायत गर नहीं होती किसी की
तो बदकारी न मर जाती कभी की

तेरी ख़ुदग़र्ज़ियां मुझको पता हैं
सबब यह है, नहीं जो बतकही की



आज यहीं तक...
आदेश दें दिग्विजय को...

सादर














6 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर गुरुवारीय अंक । आभार दिग्विजय जी 'उलूक' के सूत्र 'ना इसका हूँ ना उसका हूँ क्या करूं इधर भी हूँ उधर भी रहना ही रहना है' को जगह देने के लिये ।

    जवाब देंहटाएं
  2. शुभप्रभात...
    सभी सुंदर लिंकों के साथ मुझे भी खपा दिया...आभार आप का....

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर लिंक संयोजन

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढ़िया हलचल प्रस्तुति
    आभार!

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह बहुत खूब। बहुत ही सुंदर प्रयास। बधाई आपको।

    जवाब देंहटाएं

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